चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1- 17 का हिन्दी अनुवाद
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- वीरवर विदुर जी! सभी लोकों की कुशल चाहने वाले भृगु आदि मुनियों ने देखा कि अंग के चले जाने से अब पृथ्वी की रक्षा करने वाला कोई नहीं रह गया है, सब लोग पशुओं के समान उच्छ्रंखल होते जा रहे हैं। तब उन्होंने माता सुनीथा की सम्मति से, मन्त्रियों के सहमत न होने पर भी वेन को भूमण्डल के राजपद पर अभिषिक्त कर दिया। वेन बड़ा कठोर शासक था। जब चोर-डाकुओं ने सुना कि वही राजसिंहासन पर बैठा है, तब सर्प से डरे हुए चूहों के समान वे सब तुरंत ही जहाँ-तहाँ छिप गये। राज्यासन पाने पर वेन आठों लोकपालों की ऐश्वर्यकला के कारण उन्मत्त हो गया और अभिमानवश अपने को ही सबसे बड़ा मानकर महापुरुषों का अपमान करने लगा। वह ऐश्वर्यमद से अंधा हो रथ पर चढ़कर निरंकुश गजराज के समान पृथ्वी और आकाश को कँपाता हुआ सर्वत्र विचरने लगा। ‘कोई भी द्विजातिय वर्ण का पुरुष कभी प्रकार का यज्ञ, दान और हवन न करे’ अपने राज्य में यह ढिंढोरा पिटवाकर उसने सारे धर्म-कर्म बंद करवा दिये। दुष्ट वेन का ऐसा अत्याचार देख सारे ऋषि-मुनि एकत्र हुए और संसार पर संकट आया समझकर करुणावश आपस में कहने लगे- ‘अहो! जैसे दोनों ओर जलती हुई लकड़ी के बीच में रहने वाले चीटी आदि जीव महान् संकट में पड़ जाते हैं, वैसे ही इस समय सारी प्रजा एक ओर राजा के और दूसरी ओर चोर-डाकुओं के अत्याचार से महान् संकट में पड़ रही है। हमने अराजकता के भय से ही अयोग्य होने पर भी वेन को राजा बनाया था; किन्तु अब उससे भी प्रजा को भय हो गया। ऐसी अवस्था में प्रजा को किस प्रकार सुख-शान्ति मिल सकती है? सुनीथा की कोख से उत्पन्न हुआ यह वेन स्वभाव से ही दुष्ट है। परन्तु साँप को दूध पिलाने के समान इसको पालना, पालने वालों के लिये अनर्थ का कारण हो गया। हमने इसे प्रजा की रक्षा करने के लिये नियुक्त किया था, यह आज उसी को नष्ट करने पर तुला हुआ है। इतना सब होने पर भी हमें इसे समझाना अवश्य चाहिये; ऐसा करने से इसके किये हुए पाप हमें स्पर्श नहीं करेंगे। हमने जान-बूझकर दुराचारी वेन को राजा बनाया था। किन्तु यदि समझाने पर भी यह हमारी बात नहीं मानेगा, तो लोक के धिक्कार से दग्ध हुए इस दुष्ट को हम अपने तेज से भस्म कर देंगे।’ ऐसा विचार करके मुनि लोग वेन के पास गये और अपने क्रोध को छिपाकर उसे प्रिय वचनों से समझाते हुए इस प्रकार कहने लगे। मुनियों ने कहा- राजन्! हम आपसे जो बात कहते हैं, उस पर ध्यान दिजिय। इससे आपकी आयु, श्री, बल और कीर्ति की वृद्धि होगी। तात! यदि मनुष्य मन, वाणी, शरीर और बुद्धि से धर्म का आचरण करे, तो उसे स्वर्गादि शोकरहित लोकों की प्राप्ति होती है। यदि उसका निष्कामभाव हो, तब तो वही धर्म उसे अनन्त मोक्षपद पर पहुँचा देता है। इसलिये वीरवर! प्रजा का कल्याणरूप वह धर्म आपके कारण नष्ट नहीं होना चाहिये। धर्म के नष्ट होने से राजा भी ऐश्वर्य से च्युत हो जाता है। जो राजा दुष्ट मन्त्री और चोर आदि से अपनी प्रजा की रक्षा करते हुए न्यायाकूल रहता है, वह इस लोक में और परलोक में दोनों जगह सुख पाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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