श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 1-16

प्रथम स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


विदुर जी के उपदेश से धृतराष्ट्र और गान्धारी का वन में जाना

सूत जी कहते हैं-विदुर जी तीर्थ यात्रा में महर्षि मैत्रेय से आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके हस्तिनापुर लौट आये। उन्हें जो कुछ जानने की इच्छा थी वह पूर्ण हो गयी थी। विदुर जी ने मैत्रेय ऋषि से जितने प्रश्न किये थे, उनका उत्तर सुनने के पहले ही श्रीकृष्ण में अनन्य भक्ति हो जाने के कारण वे उत्तर सुनने से उपराम हो गये।

शौनक जी! अपने चाचा विदुर जी को आया देख धर्मराज युधिष्ठिर, उनके चारों भाई, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी तथा पाण्डव परिवार के अन्य सभी नर-नारी और अपने पुत्रों सहित दूसरी स्त्रियाँ- सब-के-सब बड़ी प्रसन्नता से, मानो मृत शरीर में प्राण आ गया हो, ऐसा अनुभव करते हुए उनकी अगवानी के लिये सामने गये। यथायोग्य आलिंगन और प्रणामादि के द्वारा सब उनसे मिले और विरहजनित उत्कण्ठा से कातर होकर सबने प्रेम के आँसू बहाये। युधिष्ठिर ने आसन पर बैठाकर उनका यथोचित सत्कार किया। जब वे भोजन एवं विश्राम करके सुखपूर्वक आसन पर बैठे थे, तब युधिष्ठिर ने विनय से झुककर सबके सामने ही उनसे कहा।

युधिष्ठिर ने कहा- चाचाजी! जैसे पक्षी अपने अंडों को पंखों की छाया के नीचे रखकर उन्हें सेते और बढ़ाते हैं, वैसे ही आपने अत्यन्त वात्सल्य से अपने करकमलों की छत्रछाया में हम लोगों को पाला-पोसा है। बार-बार आपने हमें और हमारी माता को विषदान और लाक्षागृह के दाह आदि विपत्तियों से बचाया है। क्या आप कभी हम लोगों की भी याद करते रहे हैं? आपने पृथ्वी पर विचरण करते समय किस वृत्ति से जीवन-निर्वाह किया? आपने पृथ्वीतल पर किन-किन तीर्थों और मुख्य क्षेत्रों का सेवन किया? प्रभो! आप-जैसे भगवान के प्यारे भक्त स्वयं ही तीर्थ स्वरूप होते हैं। आप लोग अपने हृदय में विराजमान भगवान के द्वारा तीर्थों को भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं। चाचाजी! आप तीर्थ यात्रा करते हुए द्वारका भी अवश्य ही गये होंगे। वहाँ हमारे सुहृद् एवं भाई-बन्धु यादव लोग, जिनके एकमात्र आराध्यदेव श्रीकृष्ण हैं, अपनी नगरी में सुख से तो हैं न? आपने यदि जाकर देखा नहीं होगा तो सुना तो अवश्य ही होगा।

युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर विदुर जी ने तीर्थों और यदुवंशियों के सम्बन्ध में जो कुछ देखा, सुना और अनुभव किया था, सब क्रम से बतला दिया, केवल यदुवंश के विनाश की बात नहीं कही। करुण हृदय विदुर जी पाण्डवों को दुःखी नहीं देख सकते थे। इसलिये उन्होंने यह अप्रिय एवं असह्य घटना पाण्डवों को नहीं सुनायी; क्योंकि वह तो स्वयं ही प्रकट होने वाली थी। पाण्डव विदुर जी का देवता के समान सेवा-सत्कार करते थे। वे कुछ दिनों तक अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र की कल्याण कामना से सब लोगों को प्रसन्न करते हुए सुखपूर्वक हस्तिनापुर में ही रहे। विदुर जी तो साक्षात् धर्मराज थे, माण्डव्य ऋषि के शाप से ये सौ वर्ष के लिये शूद्र बन गये थे।[1] इतने दिनों तक यमराज के पद पर अर्यमा थे और वही पापियों को उचित दण्ड देते थे। राज्य प्राप्त हो जाने पर अपने लोकपालों-सरीखे भाइयों के साथ राजा युधिष्ठिर वंशधर परीक्षित को देखकर अपनी अतुल सम्पत्ति से आनन्दित रहने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एक समय किसी राजा के अनुचरों ने कुछ चोरों को माण्डव्य ऋषि के आश्रम पर पकड़ा। उन्होंने समझा कि ऋषि भी चोरों में शामिल होंगे। अतः वे भी पकड़ लिये गये और राजाज्ञा से सबके साथ उनको भी शूली पर चढ़ा दिया गया। राजा को यह पता लगते ही कि ये महात्मा हैं, ऋषि को शूली से उतरवा दिया और हाथ जोड़कर उनसे अपना अपराध क्षमा कराया। माण्डव्य जी ने यमराज के पास जाकर पूछा- ‘मुझे किस पाप के फलस्वरूप यह दण्ड मिला?’ यमराज ने बताया कि ‘आपने लड़कपन में एक टिड्डी को कुश की नोक से छेद दिया था, इसीलिये ऐसा हुआ।’ इस पर मुनि ने कहा- ‘मैंने अज्ञानवश ऐसा किया होगा, उस छोटे से अपराध के लिये तुमने मुझे बड़ा कठोर दण्ड दिया। इसलिये तुम सौ वर्ष तक शूद्रयोनि में रहोगे।’ माण्डव्य जी के इस शाप से ही यमराज ने विदुर के रूप में अवतार लिया था।

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