श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 1-9

पंचम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद


आग्नीध्र-चरित्र

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- पिता प्रियव्रत के इस प्रकार तपस्या में संलग्न हो जाने पर राजा आग्नीध्र उनकी आज्ञा का अनुसरण करते हुए जम्बू द्वीप की प्रजा का धर्मानुसार पुत्रवत् पालन करने लगे। एक बार वे पितृलोक की कामना से सत्पुत्र प्राप्ति के लिये पूजा की सब सामग्री जुटाकर सुरसुन्दरियों के क्रीड़ास्थल मन्दराचल की एक घाटी में गये और तपस्या में तत्पर होकर एकाग्रचित्त से प्रजापतियों के पति श्रीब्रह्मा जी की आराधना करने लगे। आदिदेव भगवान् श्रीब्रह्मा जी ने उनकी अभिलाषा जान ली। अतः अपनी सभा की गायिका पूर्वचित्ति नाम की अप्सरा को उनके पास भेज दिया। आग्नीध्र जी के आश्रम के पास एक अति रमणीय उपवन था। वह अप्सरा उसी में विचरने लगी। उस उपवन में तरह-तरह के सघन तरुवरों की शाखाओं पर स्वर्ण लताएँ फैली हुई थीं। उन पर बैठे हुए मयूरादि कई प्रकार के स्थलचारी पक्षियों के जोड़े सुमधुर बोली बोल रहे थे। उनकी षड्जादि स्वरयुक्त ध्वनि सुनकर सचेत हुए जलकुक्कुट, कारण्डव एवं कलहंस आदि जलपक्षी भाँति-भाँति से कूजने लगते थे। इससे वहाँ के कमलवन से सुशोभित निर्मल सरोवर गूँजने लगते थे।

पूर्वचित्ति की विलासपूर्ण सुललित गतिविधि और पादविन्यास की शैली से पद-पद पर उसके चरणनूपुरों की झनकार हो उठती थी। उसकी मनोहर ध्वनि सुनकर राजकुमार आग्नीध्र ने समाधियोग द्वारा मूँदे हुए अपने कमल-कली के समान सुन्दर नेत्रों को कुछ-कुछ खोलकर देखा तो पास ही उन्हें वह अप्सरा दिखायी दी। वह भ्रमरी के समान एक-एक फूल के पास जाकर उसे सूँघती थी तथा देवता और मनुष्यों के मन और नयनों को आह्लादित करने वाली अपनी विलासपूर्ण गति, क्रीड़ा-चापल्य, लज्जा एवं विनययुक्त चितवन, सुमधुर वाणी तथा मनोहर अंगावयवों से पुरुषों के हृदय में कामदेव के प्रवेश के लिये द्वार-सा बना देती थी। जब वह हँस-हँसकर बोलने लगती, तब ऐसा प्रतीत होता मानो उसके मुख से अमृतमय मादक मधु झर रहा है। उसके निःश्वास के गन्ध से मदान्ध होकर भौरे उसके मुखकमल को घेर लेते, तब वह उनसे बचने के लिये जल्दी-जल्दी पैर उठाकर चलती तो उसके कुचकलश, वेणी और करधनी हिलने से बड़े ही सुहावने लगते।

यह सब देखने से भगवान् कामदेव को आग्नीध्र के हृदय में प्रवेश करने का अवसर मिल गया और वे उनके अधीन होकर उसे प्रसन्न करने के लिये पागल की भाँति इस प्रकार कहने लगे- ‘मुनिवर्य! तुम कौन हो, इस पर्वत पर तुम क्या करना चाहते हो? तुम परमपुरुष श्रीनारायण की कोई माया तो नहीं हो? [भौंहों की ओर सनते करके-] सखे! तुमने ये बिना डोरी के दो धनुष क्यों धारण कर रखे हैं? क्या इनसे तुम्हारा कोई अपना प्रयोजन है अथवा इस संसारारण्य में मुझ-जैसे मतवाले मृगों का शिकार करना चाहते हो।

[कटाक्षों को लक्ष्य करके-] तुम्हारे ये दो बाण तो बड़े सुन्दर और पैने हैं। अहो! इनके कमलदल के पंख हैं, देखने में शान्त हैं और हैं भी पंखहीन। यहाँ वन में विचरते हुए तुम इन्हें किस पर छोड़ना चाहते हो? यहाँ तुम्हारा कोई सामना करने वाला नहीं दिखायी देता। तुम्हारा यह पराक्रम हम-जैसे जड़-बुद्धियों के लिये कल्याणकारी हो।

[भौंरों की ओर देखकर-] भगवन्! तुम्हारे चारों ओर जो ये शिष्यगण अध्ययन कर रहे हैं, वे तो निरन्तर रहस्ययुक्त सामगाम करते हुए मानो भगवान् की स्तुति कर रहे हैं और ऋषिगण जैसे वेद की शाखाओं का अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार ये सब तुम्हारी चोटी से झड़े हुए पुष्पों का सेवन कर रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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