श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 25 श्लोक 1-9

पंचम स्कन्ध: पञ्चविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चविंश स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद


श्रीसंकर्षणदेव का विवरण और स्तुति

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! पाताल लोक के नीचे तीस हजार योजन की दूरी पर अनन्त नाम से विख्यात भगवान् की तामसी नित्य कला है। यह अहंकाररूपा होने से द्रष्टा और दृश्य को खींचकर एक कर देती है, इसलिये पांचरात्र आगम के अनुयायी भक्तजन इसे ‘संकर्षण’ कहते हैं। इन भगवान् अनन्त के एक हजार मस्तक हैं। उनमें से एक पर रखा हुआ यह सारा भूमण्डल सरसों के दाने के समान दिखायी देता है। प्रलयकाल उपस्थित होने पर जब इन्हें इस विश्व का उपसंहार करने की इच्छा होती है, तब इनकी क्रोधवश घूमती हुई मनोहर भ्रुकुटियों के मध्यभाग से संकर्षण नामक रुद्र प्रकट होते हैं। उनकी व्यूहसंख्या ग्यारह है। वे सभी तीन नेत्रों वाले होते हैं और हाथ में तीन नोकों वाले शूल लिये रहते हैं।

भगवान् संकर्षण के चरणकमलों के गोल-गोल स्वच्छ और अरुणवर्ण नख मणियों की पंक्ति के समान देदीप्यमान हैं। जब अन्य प्रधान-प्रधान भक्तों के सहित अनेकों नागराज अनन्य भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम करते हैं, तब उन्हें उन नख मणियों में अपने कुण्डल कान्तिमण्डित कमनीय कपोलों वाले मनोहर मुखारविन्दों की मनमोहिनी झाँकी होती है और उनका मन आनन्द से भर जाता है। अनेकों नागराजों की कन्याएँ विविध कामनाओं से उनके अंगमण्डल पर चाँदी के खम्भों के समान सुशोभित उनकी वलयविलसित लंबी-लंबी श्वेतवर्ण सुन्दर भुजाओं पर अरगजा, चन्दन और कुंकुम पंक का लेप करती हैं। उस समय अंग स्पर्श से मथित हुए उनके हृदय में काम का संचार हो जाता है। तब वे उनके मदविह्वल सकरुण अरुण नयनकमलों से सुशोभित तथा प्रेममद से मुदित मुखारविन्द की ओर मधुर मनोहर मुस्कान के साथ सलज्जभाव से निहारने लगती हैं। वे अनन्त गुणों के सागर आदिदेव भगवान् अनन्त अपने अमर्ष (असहनशीलता) और रोष के वेग को रोके हुए वहाँ समस्त लोकों के कल्याण के लिये विराजमान हैं।

देवता, असुर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर और मुनिगण भगवान् अनन्त का ध्यान किया करते हैं। उनके नेत्र निरन्तर प्रेममद से मुदित, चंचल और विह्वल रहते हैं। वे सुललित वचनामृत से अपने पार्षद और देवयूथपों को सन्तुष्ट करते रहते हैं। उनके अंग पर नीलाम्बर और कानों में केवल एक कुण्डल जगमगाता रहता है तथा उनका सुभग और सुन्दर हाथ हाल की मूठ पर रख रहता है। वे उदार लीलामय भगवान् संकर्षण गले में वैजयन्ती माला धारण किये रहते हैं, जो साक्षात् इन्द्र के हाथी ऐरावत के गले में पड़ी हुई सुवर्ण की श्रृंखला के समान जान पड़ती है। जिसकी कान्ति कभी फीकी नहीं पड़ती, ऐसी नवीन तुलसी की गन्ध और मधुर मकरन्द से उन्मत्त हुए भौंरे निरन्तर मधुर गुंजार करके उसकी शोभा बढ़ाते रहते हैं।

परीक्षित! इस प्रकार भगवान् अनन्त माहात्म्य-श्रवण और ध्यान करने से मुमुक्षुओं के हृदय में आविर्भूत होकर उनकी अनादिकालीन कर्मवासनाओं से ग्रथित सत्त्व, रज और तमोगुणात्मक अविद्यामयी हृदयग्रन्थि को तत्काल काट डालते हैं। उनके गुणों का एक बार ब्रह्मा जी के पुत्र भगवान् नारद ने तुम्बुरु गन्धर्व के साथ ब्रह्मा जी की सभा में इस प्रकार गान किया था।

जिनकी दृष्टि पड़ने से ही जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के हेतुभूत सत्त्वादि प्राकृत गुण अपने-अपने कार्य में समर्थ होते हैं, जिनका स्वरूप ध्रुव (अनन्त) और अकृत (अनादि) है तथा जो अकेले होते हुए ही इस नानात्मक प्रपंच को अपने में धारण किये हुए हैं-उन भगवान् संकर्षण के तत्त्व को कोई कैसे जान सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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