श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 28 श्लोक 1-16

तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


अष्टांगयोग की विधि

कपिल भगवान् कहते हैं- माताजी! अब मैं तुम्हें सबीज (धयेयस्वरूप के आलम्बन से युक्त) योग का लक्षण बताता हूँ, जिसके द्वारा चित्त शुद्ध एवं प्रसन्न होकर परमात्मा के मार्ग में प्रवृत्त हो जाता है। यशाशक्ति शास्त्रविहित स्वधर्म का पालन करना तथा शास्त्रविरुद्ध आचरण का परित्याग करना, प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाये, उसी में सन्तुष्ट रहना आत्मज्ञानियों के चरणों की पूजा करना, विषय-वासनाओं को बढ़ाने वाले कर्मों से दूर रहना, संसारबन्धन से छुड़ाने वाले धर्मों में प्रेम करना, पवित्र और परिमित भोजन करना, निरन्तर एकान्त और निर्भय स्थान में रहना, मन, वाणी और शरीर से किसी जीव को न सताना, सत्य बोलना, चोरी न करना, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, तपस्या करना (धर्मपालन के लिये कष्ट सहना), बाहर-भीतर से पवित्र रहना, शास्त्रों का अध्ययन करना, भगवान् की पूजा करना, वाणी का संयम करना, उत्तम आसनों का अभ्यास करके स्थिरतापूर्वक बैठना, धीरे-धीरे प्राणायाम के द्वारा श्वास को जीतना, इन्द्रियों को मन के द्वारा विषयों से हटाकर अपने हृदय में ले जाना। मूलाधार आदि किसी एक केन्द्र में मन के सहित प्राणों को स्थिर करना, निरन्तर भगवान् की लीलाओं का चिन्तन और चित्त को समाहित करना। उनसे तथा व्रत-दानादि दूसरे साधनों से भी सावधानी के साथ प्राणों को जीतकर बुद्धि के द्वारा अपने कुमार्गगामी दुष्टचित्त को धीरे-धीरे एकाग्र करे, परमात्मा के ध्यान में लगावे।

पहले आसन को जीते, फिर प्राणायाम के अभ्यास के लिये पवित्र देश में कुश-मृगचर्मादि युक्त आसन बिछावे। उस पर शरीर को सीधा और स्थिर रखते हुए सुखपूर्वक बैठकर अभ्यास करे। आरम्भ में बायें नासिका से पूरक, कुम्भक और रेचक करे, फिर इसके विपरीत दाहिनी नासिका से प्राणायाम करके प्राण के मार्ग का शोधन करे-जिससे चित्त स्थिर और निश्चल हो जाये। जिस प्रकार वायु और अग्नि से तपाया हुआ सोना अपने मल को त्याग देता है, उसी प्रकार जो योगी प्राण वायु को जीत लेता है, उसका मन बहुत शीघ्र शुद्ध हो जाता है। अतः योगी को उचित है कि प्राणायाम से वात-पित्तादिजनित दोषों को, धारणा से पापों को, प्रत्याहार से विषयों के सम्बन्ध को और ध्यान से भगवद्विमुख करने वाले राग-द्वेषादि दुर्गुणों को दूर करे। जब योग का अभ्यास करते-करते चित्त निर्मल और एकाग्र हो जाये, तब नासिका के अग्रभाग में दृष्टि जमाकर इस प्रकार भगवान् की मूर्ति का ध्यान करे।

भगवान् का मुखकमल आनन्द से प्रफुल्ल है, नेत्र कमलकोश के समान रतनारे हैं, शरीर नीलकमलदल के समान श्याम हैं; हाथों में शंख, चक्र और गदा धारण किये हैं। कमल की केसर के समान पीला रेशमी वस्त्र लहरा रहा है, वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिह्न है और गले में कौस्तुभ मणि झिलमिला रही है। वनमाला चरणों तक लटकी हुई है, जिसके चारों ओर भौंरे सुगन्ध से मतवाले होकर मधुर गुंजार कर रहे हैं; अंग-प्रत्यंग में महामूल्य हार, कंकण, किरीट, भुजबन्ध और नूपुर आदि आभूषण विराजमान हैं। कमर में करधनी की लड़ियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही हैं; भक्तों के हृदयकमल ही उनके आसन हैं, उनक दर्शनीय श्यामसुन्दरस्वरूप अत्यन्त शान्त एवं मन और नयनों को आनन्दित करने वाला है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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