श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 31 श्लोक 1-15

चतुर्थ स्कन्ध: एकत्रिंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकत्रिंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


प्रचेताओं को श्रीनारद जी का उपदेश और उनका परमपद-लाभ

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! दस लाख वर्ष बीत जाने पर जब प्रचेताओं को विवेक हुआ, तब उन्हें भगवान् के वाक्यों की याद आयी और वे अपनी भार्या मारिषा को पुत्र के पास छोड़कर तुरंत घर से निकल पड़े। वे पश्चिम दिशा में समुद्र के तट पर- जहाँ जाजलि मुनि ने सिद्धि प्राप्त की थी- जा पहुँचे और जिससे ‘समस्त भूतों में एक ही आत्मतत्त्व विराजमान है’ ऐसा ज्ञान होता है, उस आत्मविचाररूप ब्रह्मसत्र का संकल्प करके बैठ गये। उन्होंने प्राण, मन, वाणी और दृष्टि को वश में किया तथा शरीर को निश्चेष्ट, स्थिर और सीधा रखते हुए आसन को जीतकर चित्त को विशुद्ध परब्रह्म में लीन कर दिया। ऐसी स्थिति में उन्हें देवता और असुर दोनों के ही वन्दनीय श्रीनारद जी ने देखा।

नारद जी को आया देख प्रचेतागण खड़े हो गये और प्रणाम करके आदर-सत्कारपूर्वक देश-कालानुसार उनकी विधिवत् पूजा की। जब नारद जी सुखपूर्वक बैठ गये, तब वे कहने लगे।

प्रचेताओं ने कहा- देवर्षे! आपका स्वागत है, आज बड़े भाग्य से हमें आपका दर्शन हुआ। ब्रह्मन्! सूर्य के समान आपका घूमना-फिरना भी ज्ञानालोक से समस्त जीवों को अभय-दान देने के लिये ही होता है।

प्रभो! भगवान् शंकर और श्रीविष्णु भगवान् ने हमें जो उपदेश दिया था, उसे गृहस्थी में आसक्त रहने के कारण हम लोग प्रायः भूल गये हैं। अतः आप हमारे हृदयों में उस परमार्थतत्त्व का साक्षात्कार कराने वाले अध्यात्म ज्ञान को फिर प्रकाशित कर दीजिये, जिससे हम सुगमता से ही इस दुस्तर संसार-सागर से पार हो जायें।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- भगवन्मय श्रीनारद जी का चित्त सर्वदा भगवान् श्रीकृष्ण में ही लगा रहता है। वे प्रचेताओं के इस प्रकार पूछने पर उनसे कहने लगे।

श्रीनारद जी ने कहा- राजाओं! इस लोक में मनुष्य का वही जन्म, वही कर्म, वही आयु, वही मन और वही वाणी सफल है, जिसके द्वारा सर्वात्मा सर्वेश्वर श्रीहरि का सेवन किया जाता है। जिनके द्वारा अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाले श्रीहरि को प्राप्त न किया जाये, उन माता-पिता की पवित्रता से, यज्ञोपवीत-संस्कार से एवं यज्ञदीक्षा से प्राप्त होने वाले उन तीन प्रकार के श्रेष्ठ जन्मों में, वेदोक्त कर्मों से, देवताओं के समान दीर्घ आयु से, शास्त्रज्ञान से, तप से, वाणी की चतुराई से, अनेक प्रकार की बातें याद रखने की शक्ति से, तीव्र बुद्धि से, बल से, इन्द्रियों की पटुता से, योग से, सांख्य (आत्मानात्म विवेक) से, संन्यास और वेदाध्ययन से तथा व्रत-वैराग्यादि अन्य कल्याण-साधनों से भी पुरुष का क्या लाभ है? वास्तव में समस्त कल्याणों की अवधि आत्मा ही है और आत्मज्ञान प्रदान करने वाले श्रीहरि ही सम्पूर्ण प्राणियों की प्रिय आत्मा हैं। जिस प्रकार वृक्ष की जड़ सींचने से उसके तना, शाखा, उपशाखा आदि सभी का पोषण हो जाता है और जैसे भोजन द्वारा प्राणों को तृप्त करने से समस्त इन्द्रियाँ पुष्ट होती हैं, उसी प्रकार श्रीभगवान् की पूजा ही सबकी पूजा है। जिस प्रकार वर्षाकाल में जल सूर्य के ताप से उत्पन्न होता है और ग्रीष्म-ऋतु में उसी की किरणों में पुनः प्रवेश कर जाता है तथा जैसे समस्त चराचर भूत पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं और फिर उसी में मिल जाते हैं, उसी प्रकार चेतना-चेतनात्मक यह समस्त प्रपंच श्रीहरि से ही उत्पन्न होता है और उन्हीं में लीन हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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