श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 1-12

षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


अजामिलोपाख्यान का प्रारम्भ

राजा परीक्षित ने कहा- भगवन्! आप पहले (द्वितीय स्कन्ध में) निवृत्ति मार्ग का वर्णन कर चुके हैं तथा यह बतला चुके हैं कि उसके द्वारा अर्चिरादि मार्ग से जीव क्रमशः ब्रह्मलोक में पहुँचता है और फिर ब्रह्मा के साथ मुक्त हो जाता है।

मुनिवर! इसके सिवा आपने उस प्रवृत्ति मार्ग का भी (तृतीय स्कन्ध में) भलीभाँति वर्णन किया है, जिससे त्रिगुणमय स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होती है और प्रकृति का सम्बन्ध न छूटने के करना जीवों को बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में आना पड़ता है। आपने यह भी बतलाया कि अधर्म करने से अनेक नरकों की प्राप्ति होती है और (पाँचवें स्कन्ध में) उनका विस्तार से वर्णन भी किया। (चौथे स्कन्ध में) आपने उस प्रथम मन्वन्तर का वर्णन किया, जिसके अधिपति स्वयाम्भुव मनु थे। साथ ही (चौथे और पाँचवें स्कन्ध में) प्रियव्रत और उत्तानपाद के वंशों तथा चरित्रों का एवं द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत, नदी, उद्यान और विभिन्न द्वीपों के वृक्षों का भी निरूपण किया। भूमण्डल की स्थिति, उसके द्वीप-वर्षादि विभाग, उनके लक्षण तथा परिमाण, नक्षत्रों की स्थिति, अतल-वितल आदि भू-विवर (सात पाताल) और भगवान् ने इन सबकी जिस प्रकार सृष्टि की उनका वर्णन भी सुनाया।

महाभाग! अब मैं वह उपाय जानना चाहता हूँ, जिसके अनुष्ठान से मनुष्यों को अनेकानेक भयंकर यातनाओं से पूर्ण नरकों में न जाना पड़े। आप कृपा करके उसका उपदेश कीजिये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- मनुष्य मन, वाणी और शरीर से पाप करता है। यदि वह उन पापों का इसी जन्म में प्रायश्चित न कर ले, तो मरने के बाद उसे अवश्य ही उन भयंकर यातनापूर्ण नरकों में जाना पड़ता है, जिनका वर्णन मैंने तुम्हें (पाँचवें स्कन्ध के अन्त में) सुनाया है। इसलिये बड़ी सावधानी और सजगता के साथ रोग एवं मृत्यु के पहले ही शीघ्र-से-शीघ्र पापों की गुरुता और लघुता पर विचार करके उनका प्रायश्चित कर डालना चाहिये, जैसे मर्मज्ञ चिकित्सक रोगों का कारण और उनकी गुरुता-लघुता जानकर झटपट उनकी चिकित्सा कर डालता है।

राजा परीक्षित ने कहा- भगवन्! मनुष्य राजदण्ड, समाजदण्ड आदि लौकिक और शास्त्रोक्त नरकगमन आदि पारलौकिक कष्टों से यह जानकर भी कि पाप उसका शत्रु है, पाप वासनाओं से विवश होकर बार-बार वैसे ही कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है। ऐसी अवस्था में उसके पापों का प्रायश्चित कैसे सम्भव है? मनुष्य कभी तो प्रायश्चित आदि के द्वारा पापों से छुटकारा पा लेता है, कभी फिर उन्हें ही करने लगता है। ऐसी स्थिति में मैं समझता हूँ कि जैसे स्नान करने के बाद धूल डाल लेने के कारण हाथी का स्नान व्यर्थ हो जाता है, वैसे ही मनुष्य का प्रायश्चित करना भी व्यर्थ ही है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- वस्तुतः कर्म के द्वारा ही कर्म का निर्बीजनाश नहीं होता; क्योंकि कर्म का अधिकारी अज्ञानी है। अज्ञान रहते पाप वासनाएँ सर्वथा नहीं मिट सकतीं। इसलिये सच्चा प्रायश्चित तो तत्त्वज्ञान ही है। जो पुरुष केवल सुपथ्य का ही सेवन करता है, उसे रोग अपने वश में नहीं कर सकते। वैसे ही परीक्षित! जो पुरुष नियमों का पालन करता है, वह धीरे-धीरे पाप वासनाओं से मुक्त हो कल्याणप्रद तत्त्वज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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