श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 1-9

पंचम स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद


ऋषभदेव जी का राज्यशासन

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! नाभिनन्दन के अंग जन्म से ही भगवान् विष्णु के वज्र-अंकुश आदि चिह्नों से युक्त थे; समता, शान्ति, वैराग्य और ऐश्वर्य आदि महाविभूतियों के कारण उनका प्रभाव दिनोंदिन बढ़ता जाता था। यह देखकर मन्त्री आदि प्रकृतिवर्ग, प्रजा, ब्राह्मण और देवताओं की यह उत्कट अभिलाषा होने लगी कि ये ही पृथ्वी का शासन करें। उनके सुन्दर और सुडौल शरीर, विपुल कीर्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश, पराक्रम और शूरवीरता आदि गुणों के कारण महाराज नाभि ने उनका नाम ‘ऋषभ’ (श्रेष्ठ) रखा।

एक बार भगवान् इन्द्र ने ईर्ष्यावश उनके राज्य में वर्षा नहीं की। तब योगेश्वर भगवान् ऋषभ ने इन्द्र की मूर्खता पर हँसते हुए अपनी योगमाया के प्रभाव से अपने वर्ष अजनाभखण्ड में खूब जल बरसाया।

महाराज नाभि अपनी इच्छा के अनुसार श्रेष्ठ पुत्र पाकर अत्यन्त आनन्दमग्न हो गये और अपनी ही इच्छा से मनुष्य शरीर धारण करने वाले पुराणपुरुष श्रीहरि का सप्रेम लालन करते हुए, उन्हीं के लीला-विलास से मुग्ध होकर ‘वत्स! तात!’ ऐसा गद्गद-वाणी कहते हुए बड़ा सुख मानने लगे। जब उन्होंने देखा कि मन्त्रिमण्डल, नागरिक और राष्ट्र की जनता ऋषभदेव से बहुत प्रेम करती है, तो उन्होंने उन्हें धर्म मर्यादा की रक्षा के लिये राज्याभिषिक्त करके ब्राह्मणों की देख-रेख में छोड़ दिया। आप अपनी पत्नी मेरुदेवी के सहित बदरिकाश्रम को चले गये। वहाँ अहिंसावृत्ति से, जिससे किसी को उद्वेग न हो, ऐसी कौशलपूर्ण तपस्या और समाधियोग के द्वारा भगवान् वासुदेव के नर-नारायणरूप की आराधना करते हुए समय आने पर उन्हीं के स्वरूप में लीन हो गये।

पाण्डुनन्दन! राजा नाभि के विषय में यह लोकिक्ति प्रसिद्ध है-

राजर्षि नाभि के उदार कर्मों का आचरण दूसरा कौन पुरुष कर सकता है- जिनके शुद्ध कर्मों से सन्तुष्ट होकर साक्षात् श्रीहरि उनके पुत्र हो गये थे। महाराज नाभि के समान ब्राह्मण भक्त भी कौन हो सकता है-जिनकी दक्षिणादि से सन्तुष्ट हुए ब्राह्मणों ने अपने मन्त्रबल से उन्हें यज्ञशाला में साक्षात् श्रीविष्णु भगवान् के दर्शन करा दिये।

भगवान् ऋषभदेव ने अपने देश अजनाभखण्ड को कर्मभूमि मानकर लोक संग्रह के लिये कुछ काल गुरुकुल में वास किया। गुरुदेव को यथोचित दक्षिणा देकर गृहस्थ में प्रवेश करने के लिये उनकी आज्ञा ली। फिर लोगों को गृहस्थधर्म की शिक्षा देने के लिये देवराज इन्द्र की दी हुई उनकी कन्या जयन्ती से विवाह किया तथा श्रौत-स्मार्त्त दोनों प्रकार के शास्त्रोपदिष्ट कर्मों का आचरण करते हुए उसके गर्भ से अपने ही समान गुण वाले सौ पुत्र उत्पन्न किये। उनके महायोगी भरत जी सबसे बड़े और सबसे अधिक गुणवान् थे। उन्हीं के नाम से लोग इस अजनाभखण्ड को ‘भारतवर्ष’ कहने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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