श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 1-15

सप्तम स्कन्ध: पञ्चदशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


गृहस्थों के लिये मोक्षधर्म का वर्णन

नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! कुछ ब्राह्मणों की निष्ठा कर्म में, कुछ की तपस्या में, कुछ की वेदों के स्वाध्याय और प्रवचन में, कुछ की आत्मज्ञान के सम्पादन में तथा कुछ की योग में होती है। गृहस्थ पुरुष को चाहिये कि श्राद्ध अथवा देवपूजा के अवसर पर अपने कर्म का अक्षय फल प्राप्त करने के लिये ज्ञाननिष्ठ पुरुष को ही हव्य-कव्य दान करे। यदि वह न मिले तो योगी, प्रवचनकार आदि को यथायोग्य और यथाक्रम देना चाहिये।

देवकार्य में दो और पितृकार्य में तीन अथवा दोनों में एक-एक ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिये। अत्यन्त धनी होने पर भी श्राद्ध कर्म में अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये। क्योंकि सगे-सम्बन्धी आदि स्वजनों को देने से और विस्तार करने से देश-कालोचित श्रद्धा, पदार्थ, पात्र और पूजन आदि ठीक-ठीक नहीं हो पाते। देश और काल के प्राप्त होने पर ऋषि-मुनियों के भोजन करने योग्य शुद्ध हविष्यान्न भगवान् को भोग लगाकर श्रद्धा से विधिपूर्वक योग्य पात्र को देना चाहिये। वह समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला और अक्षय होता है। देवता, ऋषि, पितर, अन्य प्राणी, स्वजन और अपने-आपको भी अन्न का विभाजन करने के समय परमात्मस्वरूप ही देखे।

धर्म का मर्म जानने वाला पुरुष श्राद्ध में मांस का अर्पण न करे और न स्वयं ही उसे खाये; क्योंकि पितरों को ऋषि-मुनियों के योग्य हविष्यान्न से जैसी प्रसन्नता होती है, वैसी पशु-हिंसा से नहीं होती। जो लोग सद्धर्म पालन की अभिलाषा रखते हैं, उनके लिये इससे बढ़कर और कोई धर्म नहीं है कि किसी भी प्राणी को मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार का कष्ट न दिया जाये। इसी से कोई-कोई यज्ञतत्त्व को जानने वाले ज्ञानी ज्ञान के द्वारा प्रज्वलित आत्म संयमरूप अग्नि में इन कर्ममय यज्ञों का हवन कर देते हैं और बाह्य कर्म-कलापों से उपरत हो जाते हैं। जब कोई इन द्रव्यमय यज्ञों से यजन करना चाहता है, तब सभी प्राणी डर जाते हैं; वे सोचने लगते हैं कि यह अपनी प्राणों का पोषण करने वाला निर्दयी मूर्ख मुझे अवश्य मार डालेगा। इसलिये धर्मज्ञ मनुष्य को यही उचित है कि प्रतिदिन प्रारब्ध के द्वारा प्राप्त मुनि जनोचित हविष्यान्न से ही अपने नित्य और नैमित्तिक कर्म करे तथा उसी से सर्वदा सन्तुष्ट रहे।

अधर्म की पाँच शाखाएँ हैं- विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल। धर्मज्ञ पुरुष अधर्म के समान ही इनका भी त्याग कर दे। जिस कार्य को धर्म बुद्धि से करने पर भी अपने धर्म में बाधा पड़े, वह ‘विधर्म’ है। किसी अन्य के द्वारा अन्य पुरुष के लिये उपदेश किया हुआ धर्म ‘परधर्म’ है। पाखण्ड या दम्भ का नाम ‘उपधर्म’ अथवा ‘उपमा’ है। शास्त्र के वचनों का दूसरे प्रकार का अर्थ कर देना ‘छल’ है। मनुष्य अपने आश्रम के विपरीत स्वेच्छा से जिसे धर्म मान लेता है, वह ‘आभास’ है। अपने-अपने स्वभाव के अनुकूल जो वर्णाश्रमोचित धर्म हैं, वे भला किसे शान्ति नहीं देते। धर्मात्मा पुरुष निर्धन होने पर भी धर्म के लिये अथवा शरीर-निर्वाह के लिये धन प्राप्त करने की चेष्टा न करे। क्योंकि जैसे बिना किसी प्रकार की चेष्टा किये अजगर की जीविका चलती ही है, वैसे ही निवृत्ति-परायण पुरुष की निवृत्ति ही उसकी जीविका का निर्वाह कर देती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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