श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 1-9

पंचम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद


राहु आदि की स्थिति, अतलादि नीचे के लोकों का वर्णन

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! कुछ लोगों का कथन है कि सूर्य से दस हजार योजन नीचे राहु नक्षत्रों के समान घूमता है। इसने भगवान् की कृपा से ही देवत्व और ग्रहत्व प्राप्त किया है, स्वयं यह सिंहिकापुत्र असुराधम होने के कारण किसी प्रकार इस पद के योग्य नहीं है। इसके जन्म और कर्मों का हम आगे वर्णन करेंगे।

सूर्य का जो यह अत्यन्त तपता हुआ मण्डल है, उसका विस्तार दस हजार योजन बतलाया जाता है। इसी प्रकार चन्द्रमण्डल का विस्तार बारह हजार योजन है और राहु का तेरह हजार योजन। अमृतपान के समय राहु देवता के वेष में सूर्य और चन्द्रमा के बीच में आकर बैठ गया था, उस समय सूर्य और चन्द्रमा ने इसका भेद खोल दिया था; उस वैर को याद करके यह अमावस्या और पूर्णिमा के दिन उन पर आक्रमण करता है। यह देखकर भगवान् ने सूर्य और चन्द्रमा की रक्षा के लिये उन दोनों के पास अपने प्रिय आयुध सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया है। वह निरन्तर घूमता रहता है, इसलिये राहु उसके असह्य तेज से उद्विग्न और चकितचित्त होकर मुहूर्तमात्र उनके सामने टिककर फिर सहसा लौट आता है। उसके उतनी देर उनके सामने ठहरने को ही लोग ‘ग्रहण’ कहते हैं।

राहु से दस हजार योजन नीचे सिद्ध, चारण और विद्याधर आदि के स्थान हैं। उनके नीचे जहाँ तक वायु की गति है और बादल दिखायी देते हैं, अन्तरिक्ष लोक है। यह यक्ष, राक्षस, पिशाच, प्रेत और भूतों का विहार स्थल है। उससे नीचे सौ योजन की दूरी पर यह पृथ्वी है। जहाँ तक हंस, गिद्ध, बाज और गरुड़ आदि प्रधान-प्रधान पक्षी उड़ सकते हैं, वहीं तक इसकी सीमा है। पृथ्वी के विस्तार और स्थिति आदि का वर्णन तो हो ही चुका है। इसके अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल नाम के सात भू-विवर (भूगर्भस्थित बिल या लोक) हैं। ये एक के नीचे एक दस-दस हजार योजन की दूरी पर स्थित हैं और इनमें से प्रत्येक की लंबाई-चौड़ाई भी दस-दस हजार योजन ही है। ये भूमि के बिल भी एक प्रकार के स्वर्ग ही हैं। इनमें स्वर्ग से भी अधिक विषय भोग, ऐश्वर्य, आनन्द, सन्तान-सुख और धन-सम्पत्ति है। यहाँ के वैभवपूर्ण भवन, उद्यान और क्रीड़ास्थानों में दैत्य, दानव और नाग तरह-तरह की मायामयी क्रीड़ाएँ करते हुए निवास करते हैं। वे सब गार्हस्थ्य धर्म का पालन करने वाले हैं। उनके स्त्री, पुत्र, बन्धु, बान्धव और सेवक लोग उनसे बड़ा प्रेम रखते हैं और सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। उनके भोगों में बाधा डालने की इन्द्रादि में भी सामर्थ्य नहीं है।

महाराज! इन बिलों में मायावी मय दानव की बनायी हुई अनेकों पुरियाँ शोभा से जगमगा रही हैं, जो अनेक जाति की सुन्दर-सुन्दर श्रेष्ठ मणियों से रचे हुए चित्र-विचित्र भवन, परकोटे, नगर द्वार, सभा भवन, मन्दिर, बड़े-बड़े आँगन और गृहों से सुशोभित हैं; तथा जिनकी कृत्रिम भूमियों (फर्शों) पर नाग और असुरों के जोड़े एवं कबूतर, तोता और मैना आदि पक्षी किलोल करते रहते हैं, ऐसे पातालधिपतियों के भव्य भवन उन पुरियों की शोभा बढ़ाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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