श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 1-15

तृतीय स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


हिरण्याक्ष वध

मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! ब्रह्मा जी के कपटरहित अमृतमय वचन सुनकर भगवान् ने उनके भोलेपन पर मुसकराकर अपने प्रेमपूर्ण कटाक्ष के द्वारा उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। फिर उन्होंने झपटकर अपने सामने निर्भय विचरते हुए शत्रु की ठुड्डी पर गदा मारी। किन्तु हिरण्याक्ष की गदा से टकराकर वह गदा भगवान् के हाथ से छूट गयी और चक्कर काटती हुई जमीन पर गिरकर सुशोभित हुई। किंतु यह बड़ी अद्भुत-सी घटना हुई। उस समय शत्रु पर वार करने का अच्छा अवसर पाकर भी हिरण्याक्ष ने उन्हें निरस्त्र देखकर युद्ध धर्म का पालन करते हुए उन पर आक्रमण नहीं किया। उसने भगवान् का क्रोध बढ़ाने के लिये ही ऐसा किया था। गदा गिर जाने पर और लोगों का हाहाकार बंद हो जाने पर प्रभु ने उसकी धर्म बुद्धि की प्रशंसा की और अपने सुदर्शन चक्र का स्मरण किया। चक्र तुरंत ही उपस्थित होकर भगवान् के हाथ में घूमने लगा। किंतु वे अपने प्रमुख पार्षद दैत्यधम हिरण्याक्ष के साथ विशेष रूप से क्रीड़ा करने लगे। उस समय उनके प्रभाव को न जानने वाले देवताओं के ये विचित्र वचन सुनायी देने लगे- ‘प्रभो! आपकी जय हो; इसे और न खेलाइये, शीघ्र ही मार डालिये’।

जब हिरण्याक्ष ने देखा कि कमल-दल-लोचन श्रीहरि उसके सामने चक्र लिये खड़े हैं, तब उसकी सारी इन्द्रियाँ क्रोध से तिलमिला उठीं और वह लम्बी साँसें लेता हुआ अपने दाँतों से होंठ चबाने लगा। उस समय वह तीखी दाढ़ों वाला दैत्य, अपने नेत्रों से इस प्रकार उनकी ओर घूरने लगा मानो वह भगवान् को भस्म कर देगा। उसने छलकर ‘ले अब तू नहीं बच सकता’ इस प्रकार ललकारते हुए श्रीहरि पर गदा से प्रहार किया।

साधुस्वभाव विदुर जी! यज्ञमूर्ति श्रीवाराह भगवान् ने शत्रु के देखते-देखते लीला से ही अपने बायें पैर से उसकी वह वायु के समान वेग वाली गदा पृथ्वी पर गिरा दी और उससे कहा, ‘अरे दैत्य! तू मुझे जीतना चाहता है, इसलिये अपना शस्त्र उठा ले और एक बार फिर वार कर।’ भगवान् के इस प्रकार कहने पर उसने फिर गदा चलायी और बड़ी भीषण गर्जना करने लगा। गदा को अपनी ओर आते देखकर भगवान् ने, जहाँ खड़े थे वहीं से, उसे आते ही अनायास इस प्रकार पकड़ लिया, जैसे गरुड़ साँपिनी को पकड़ कर लें। अपने उद्यम को इस प्रकार व्यर्थ हुआ देख उस महादैत्य का घमंड ठंडा पड़ गया और उसका तेज नष्ट हो गया। अबकी बार भगवान् के देने पर उसने उस गदा को लेना न चाहा। किन्तु जिस प्रकार कोई ब्राह्मण के ऊपर निष्फल अभिचार (मारणादि प्रयोग) करे-मूठ आदि चलाये, वैसे ही उसने श्रीयज्ञपुरुष पर प्रहार करने के लिये एक प्रज्वलित अग्नि के समान लपलपाता हुआ त्रिशूल लिया।

महाबली हिरण्याक्ष का अत्यन्त वेग से छोड़ा हुआ वह तेजस्वी त्रिशूल आकाश में बड़ी तेजी से चमकने लगा। तब भगवान् ने उसे अपनी तीखी धार वाले चक्र से इस प्रकार काट डाला, जैसे इन्द्र ने गरुड़ जी के छोड़े हुए तेजस्वी पंख को काट डाला था।[1] भगवान् के चक्र से अपने त्रिशूल के बहुत-से टुकड़े हुए देखकर उसे बड़ा क्रोध हुआ। उसने पास आकर उनके विशाल वक्षःस्थल पर, जिस पर श्रीवत्स का चिह्न सुशोभित है, कसकर घूँसा मारा और फिर बड़े जोर से गरजकर अन्तर्धान हो गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एक बार गरुड़ जी अपनी माता विनता को सर्पों की माता कद्रू के दासीपन से मुक्त करने के लिये देवताओं के पास से अमृत छीन लाये थे। तब इन्द्र ने उनके ऊपर अपना वज्र छोड़ा। इन्द्र का वज्र कभी व्यर्थ नहीं जाता, इसलिये उसका मान रखने के लिये गरुड़ जी ने अपना एक पर गिरा दिया। उसे उस वज्र ने काट डाला।

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