श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 33 श्लोक 1-13

तृतीय स्कन्ध: त्रयस्त्रिंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयस्त्रिंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


देवहूति को तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपद की प्राप्ति

मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! श्रीकपिल भगवान् के ये वचन सुनकर कर्दम जी की प्रिय पत्नी माता देवहूति के मोह का पर्दा फट गया और वे तत्त्वप्रतिपादक सांख्यशास्त्र के ज्ञान की आधारभूमि भगवान् श्रीकपिल जी को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगीं।

देवहूति जी ने कहा- कपिल जी! ब्रह्मा जी आपके ही नाभिकमल से प्रकट हुए थे। उन्होंने प्रलयकालीन जल में शयन करने वाले आपके पंचभूत, इन्द्रिय, शब्दादि विषय और मनोमय विग्रह का, जो सत्त्वादि गुणों के प्रवाह से युक्त, सत्स्वरूप और कार्य एवं कारण दोनों का बीज है, ध्यान ही किया था। आप निष्क्रिय, सत्यसंकल्प, सम्पूर्ण जीवों के प्रभु तथा सहस्रों अचिन्त्य शक्तियों से सम्पन्न हैं। अपनी शक्ति को गुण प्रवाहरूप से ब्रह्मादि अनन्त मूर्तियों में विभक्त करके उनके द्वारा आप स्वयं ही विश्व की रचना आदि करते हैं। नाथ! यह कैसी विचित्र बात है कि जिनके उदर में प्रलयकाल आने पर यह सारा प्रपंच लीन हो जाता है और जो कल्पान्त में मायामय बालक का रूप धारण कर अपने चरण का अँगूठा चूसते हुए अकेले ही वट वृक्ष के पत्ते पर शयन करते हैं, उन्हीं आपको मैंने गर्भ में धारण किया।

विभो! आप पापियों का दमन और अपने आज्ञाकारी भक्तों का अभ्युदय एवं कल्याण करने के लिये स्वेच्छा से देह धारण किया करते हैं। अतः जिस प्रकार आपके वराह आदि अवतार हुए हैं, उसी प्रकार यह कपिलावतार भी मुमुक्षुओं को ज्ञान मार्ग दिखाने के लिये हुआ है। भगवन्! आपके नामों का श्रवण या कीर्तन करने से तथा भूले-भटके कभी-कभी आपका वन्दन या स्मरण करने से ही कुत्ते का मांस खाने वाला चाण्डाल भी सोमयाजी ब्राह्मण के समान पूजनीय हो सकता है; फिर आपका दर्शन करने से मनुष्य कृतकृत्य हो जाये-इसमें तो कहना ही क्या है। अहो! वह चाण्डाल भी इसी में सर्वश्रेष्ठ है कि उसकी जिह्वा के अग्रभाग में आपका नाम विराजमान है। जो श्रेष्ठ पुरुष आपका नाम उच्चारण करते हैं, उन्होंने तप, हवन, तीर्थस्थान, सदाचार का पालन और वेदाध्ययन-सब कुछ कर लिया।

कपिलदेव जी! आप साक्षात् परब्रह्म हैं, आप ही परम पुरुष हैं, वृत्तियों के प्रवाह को अन्तर्मुख करके अन्तःकरण में आपका ही चिन्तन किया जाता है। आप अपने तेज से माया के कार्य गुण-प्रवाह को शान्त कर देते हैं तथा आपके ही उदर में सम्पूर्ण वेदतत्त्व निहित है। ऐसे साक्षात् विष्णुस्वरूप आपको मैं प्रणाम करती हूँ।

मैत्रेय जी कहते हैं- माता के इस प्रकार स्तुति करने पर मातृवत्सल परमपुरुष भगवान् कपिलदेव जी ने उनसे गम्भीर वाणी में कहा।

कपिलदेव जी ने कहा- माताजी! मैंने तुम्हें जो यह सुगम मार्ग बताया है, इसका अवलम्बन करने से तुम शीघ्र ही परमपद प्राप्त कर लोगी। तुम मेरे इस मत में विश्वास करो, ब्रह्मवादी लोगों ने इसका सेवन किया है; इसके द्वारा तुम मेरे जन्म-मरणरहित स्वरूप को प्राप्त कर लोगी। जो लोग मेरे इस मत को नहीं जानते, वे जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ते हैं।

मैत्रेय जी कहते हैं- इस प्रकार अपने श्रेष्ठ आत्मज्ञान का उपदेश कर श्रीकपिलदेव जी अपनी ब्रह्मवादिनी जननी की अनुमति लेकर वहाँ से चले गये। तब देवहूति भी सरस्वती के मुकुट सदृश अपने आश्रम में अपने पुत्र के उपदेश किये हुए योग साधन के द्वारा योगाभ्यास करती हुई समाधि में स्थित हो गयीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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