प्रथम स्कन्ध: अष्टम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः अष्टम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
सूत जी कहते हैं- इसके बाद पाण्डव श्रीकृष्ण के साथ जलांजलि के इच्छुक मरे हुए स्वजनों का तर्पण करने के लिये स्त्रियों को आगे करके गंगातट पर गये। वहाँ उन सबने मृत बन्धुओं को जलदान दिया और उनके गुणों का स्मरण करके बहुत विलाप किया। तदनन्तर भगवान के चरण-कमलों की धूलि से पवित्र गंगाजल में पुनः स्नान किया। वहाँ अपने भाइयों के साथ कुरुपती महाराज युधिष्ठिर, धृतराष्ट्र, पुत्र शोक से व्याकुल गान्धारी, कुन्ती और द्रौपदी- सब बैठकर मरे हुए स्वजनों के लिये शोक करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण ने धौम्यादि मुनियों के साथ उनको सान्त्वना दी और समझाया कि- 'संसार के सभी प्राणी काल के अधीन हैं, मौत से किसी को कोई बचा नहीं सकता।' इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर को उनका वह राज्य, जो धूर्तों ने छल से छीन लिया था, वापस दिलाया तथा द्रौपदी के केशों का स्पर्श करने से जिनकी आयु क्षीण हो गयी थी, उन दुष्ट राजाओं का वध कराया। साथ ही युधिष्ठिर के द्वारा उत्तम सामग्रियों से तथा पुरोहितों से तीन अश्वमेध यज्ञ कराये। इस प्रकार युधिष्ठिर के पवित्र यश को सौ यज्ञ करने वाले इन्द्र के यश की तरह सब ओर फैला दिया। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने वहाँ से जाने का विचार किया। उन्होंने इसके लिये पाण्डवों से विदा ली और व्यास आदि ब्राह्मणों का सत्कार किया। उन लोगों ने भी भगवान का बड़ा ही सम्मान किया। तदनन्तर सात्यकि और उद्धव के साथ द्वारका जाने के लिये वे रथ पर सवार हुए। उसी समय उन्होंने देखा कि उत्तरा भय से विह्वल होकर सामने से दौड़ी चली आ रही है। उत्तरा ने कहा- देवाधिदेव! जगदीश्वर! आप महायोगी हैं। आप मेरी रक्षा कीजिये; रक्षा कीजिये। आपके अतिरिक्त इस लोक में मुझे अभय देने वाला और कोई नहीं है; क्योंकि यहाँ सभी परस्पर एक-दूसरे की मृत्यु के निमित्त बन रहे हैं। प्रभो! आप सर्व-शक्तिमान् हैं। यह दहकते हुए लोहे का बाण मेरी ओर दौड़ा आ रहा है। स्वामिन्! यह मुझे भले ही जला डाले, परन्तु मेरे गर्भ को नष्ट न करे- ऐसी कृपा कीजिये।' सूत जी कहते हैं- भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण उसकी बात सुनते ही जान गये कि अश्वत्थामा ने पाण्डवों के वंश को निर्बीज करने के लिये ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया है। शौनक जी! उसी समय पाण्डवों ने भी देखा कि जलते हुए पाँच बाण हमारी ओर आ रहे हैं। इसलिये उन्होंने भी अपने-अपने अस्त्र उठा लिये। सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण ने अपने अनन्य प्रेमियों पर- शरणागत भक्तों पर बहुत बड़ी विपत्ति आयी जानकर अपने निज अस्त्र सुदर्शन चक्र से उन निज जनों की रक्षा की। योगेश्वर श्रीकृष्ण समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान आत्मा हैं। उन्होंने उत्तरा के गर्भ को पाण्डवों की वंश परम्परा चलाने के लिये अपनी माया के कवच से ढक दिया। शौन कजी! यद्यपि ब्रह्मास्त्र अमोघ है और उसके निवारण का कोई उपाय भी नहीं है, फिर भी भगवान श्रीकृष्ण के तेज के सामने आकर वह शान्त हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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