श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 47 श्लोक 1-10

दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंश अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंश अध्याय श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! गोपियों ने देखा कि श्रीकृष्ण के सेवक उद्धव जी की आकृति और वेषभूषा श्रीकृष्ण से मिलती-जुलती है। घुटनों तक लंबी-लंबी भुजाएँ हैं, नूतन कमलदल के समान कोमल नेत्र हैं, शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए हैं, गले में कमल-पुष्पों की माला है, कानों में मणिजटित कुण्डल झलक रहे हैं और मुखारविन्द अत्यन्त प्रफुल्लित है।

पवित्र मुस्कान वाली गोपियों ने आपस में कहा - ‘यह पुरुष देखने में तो बहुत सुन्दर है। परन्तु यह है कौन? कहाँ से आया है? किसका दूत है? इसने श्रीकृष्ण - जैसी वेशभूषा क्यों धारण कर रखी है?’ सब-की-सब गोपियाँ उनका परिचय प्राप्त करने के लिये अत्यन्त उत्सुक हो गयीं और उसमें से बहुत-सी पवित्रकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के आश्रित तथा उनके सेवक-सखा उद्धव जी को चारों ओर से घेरकर खड़ी हो गयीं।

जब उन्हें मालूम हुआ कि ये तो रमारमण भगवान श्रीकृष्ण का सन्देश लेकर आये हैं, तब उन्होंने विनय से झुककर सलज्ज हास्य, चितवन और मधुर वाणी आदि से उद्धव जी का अत्यन्त सत्कार किया तथा एकान्त में आसन पर बैठकर वे उनसे इस प्रकार कहने लगीं - ‘उद्धव जी! हम जानती हैं कि आप यदुनाथ के पार्षद हैं। उन्हीं का संदेश लेकर यहाँ पधारे हैं। आपके स्वामी ने अपने माता-पिता को सुख देने के लिये आपको यहाँ भेजा है। अन्यथा हमें तो अब नन्दगाँव में - गौओं के रहने की जगह में उनके स्मरण करने योग्य कोई भी वस्तु दिखायी नहीं पड़ती; माता-पिता आदि सगे-सम्बन्धियों का स्नेह-बन्धन तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी बड़ी कठिनाई से छोड़ पाते हैं।

दूसरों के साथ जो प्रेम-सम्बन्ध का स्वाँग किया जाता है, वह तो किसी-न-किसी स्वार्थ के लिये ही होता है। भौंरों का पुष्पों से और पुरुषों का स्त्रियों से ऐसा ही स्वार्थ का प्रेम-सम्बन्ध होता है। जब वेश्या समझती है कि अब मेरे यहाँ आने वाले के पास धन नहीं है, तब उसे वह धता बता देती है। जब प्रजा देखती है कि यह राजा हमारी रक्षा नहीं कर सकता, तब वह उसका साथ छोड़ देती है। अध्ययन समाप्त हो जाने पर कितने शिष्य अपने आचार्यों की सेवा करते हैं? यज्ञ की दक्षिणा मिली कि ऋत्विज लोग चलते बने। जब वृक्ष पर फल नहीं रहते, तब पक्षीगण वहाँ से बिना कुछ सोचे-विचारे उड़ जाते हैं। भोजन कर लेने के बाद अतिथि लोग ही गृहस्थ की ओर देखते हैं? वन में आग लगी कि पशु भाग खड़े हुए। चाहे स्त्री के हृदय में कितना भी अनुराग हो, जार पुरुष अपना काम बना लेने के बाद उलटकर भी तो नहीं देखता।'

परीक्षित! गोपियों के मन, वाणी और शरीर श्रीकृष्ण में ही तल्लीन थे। जब भगवान श्रीकृष्ण के दूत बनकर उद्धव जी व्रज में आये, तब वे उनसे इस प्रकार कहते-कहते भूल ही गयीं कि कौन-सी बात किस तरह किसके सामने कहनी चाहिये। भगवान श्रीकृष्ण ने बचपन से लेकर किशोर-अवस्था तक जितनी भी लीलाएँ की थीं, उन सबकी याद कर-करके गोपियाँ उनका गान करने लगीं। वे आत्मविस्मृत होकर स्त्री-सुलभ लज्जा को भी भूल गयीं और फूट-फूटकर रोने लगीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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