श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 1-16

नवम स्कन्ध: षष्ठोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


इक्ष्वाकु के वंश का वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! अम्बरीष के तीन पुत्र थे- विरूप, केतुमान् और शम्भु। विरूप से पृषदश्व और उसका पुत्र रथीतर हुआ। रथीतर सन्तानहीन था। वंश परम्परा की रक्षा के लिये उसने अंगिरा ऋषि से प्रार्थना की, उन्होंने उसकी पत्नी से ब्रह्मतेज से सम्पन्न कई पुत्र उत्पन्न किये। यद्यपि ये सब रथीतर की भार्या से उत्पन्न हुए थे, इसलिये इनका गोत्र वही होना चाहिये था, जो रथीतर का था, फिर भी वे आंगिरस ही कहलाये। ये ही रथीतर-वंशियों के प्रवर (कुल में सर्वश्रेष्ठ पुरुष) कहलाये। क्योंकि ये क्षत्रोपेत ब्राह्मण थे-क्षत्रिय और ब्राह्मण दोनों गोत्रों से इनका सम्बन्ध था।

परीक्षित! एक बार मनु जी के छींकने पर उनकी नासिका से इक्ष्वाकु नाम पुत्र उत्पन्न हुआ। इक्ष्वाकु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़े तीन थे- विकुक्षि, निमि और दण्डक। परीक्षित! उनसे छोटे पचीस पुत्र आर्यावर्त के पूर्वभाग के और पचीस पश्चिम भाग के तथा उपर्युक्त तीन मध्य भाग के अधिपति हुए। शेष सैंतालीस दक्षिण आदि अन्य प्रान्तों के अधिपति हुए।

एक बार राजा इक्ष्वाकु ने अष्टका-श्राद्ध के समय अपने बड़े पुत्र को आज्ञा दी- ‘विकुक्षे! शीघ्र ही जाकर श्राद्ध के योग्य पवित्र पशुओं का मांस लाओ’। वीर विकुक्षे ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर वन की यात्रा की। वहाँ उसने श्राद्ध के योग्य बहुत-से पशुओं का शिकार किया। वह थक तो गया ही ता, भूख भी लग आयी थी; इसलिये यह बात भूल गया कि श्राद्ध के लिये मारे हुए पशु को स्वयं न खाना चाहिये। उसने एक खरगोश खा लिया। विकुक्षि ने बचा हुआ मांस लाकर अपने पिता को दिया। इक्ष्वाकु ने अब अपने गुरु से उसे प्रोक्षण करने के लिये कहा, तब गुरु जी ने बताया कि यह मांस तो दूषित एवं श्राद्ध के अयोग्य है।

परीक्षित! गुरु जी के कहने पर राजा इक्ष्वाकु को अपने पुत्र की करतूत का पता चल गया। उन्होंने शास्त्रीय विधि का उल्लंघन करने वाले पुत्र को क्रोधवश अपने देश से निकाल दिया। तदनन्तर राजा इक्ष्वाकु ने अपने गुरुदेव वसिष्ठ से ज्ञान विषयक चर्चा की। फिर योग के द्वारा शरीर का परित्याग करके उन्होंने परमपद प्राप्त किया। पिता का देहान्त हो जाने पर विकुक्षि अपनी राजधानी में लौट आया और इस पृथ्वी का शासन करने लगा। उसने बड़े-बड़े यज्ञों से भगवान् की आराधना की और संसार में शशाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

विकुक्षि के पुत्र का नाम था पुरंजय। उसी को कोई ‘इन्द्रवाह’ और कोई ‘कुकुत्स्थ’ कहते हैं। जिन कर्मों के कारण उसके ये नाम पड़े थे, उन्हें सुनो।

सत्ययुग के अन्त में देवताओं का दानवों के साथ घोर संग्राम हुआ था। उसमें सब-के-सब देवता दैत्यों से हार गये। तब उन्होंने वीर पुरंजय को सहायता के लिये अपना मित्र बनाया। पुरंजय ने कहा कि ‘यदि देवराज इन्द्र मेरे वाहन बनें तो मैं युद्ध कर सकता हूँ।’ पहले तो इन्द्र ने अस्वीकार कर दिया, परन्तु देवताओं के आराध्यदेव सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान् की बात मानकर पीछे वे एक बड़े भारी बैल बन गये। सर्वान्तर्यामी भगवान् विष्णु ने अपनी शक्ति से पुरंजय को भर दिया। उन्होंने कवच पहकर दिव्य धनुष और तीखे बाण ग्रहण किये। इसके बाद बैल पर चढ़कर वे उसके ककुद् (डील) के पास बैठ गये। जब इस प्रकार वे युद्ध के लिये तत्पर हुए, तब देवता उनकी स्तुति करने लगे। देवताओं को साथ लेकर उन्होंने पश्चिम की ओर से दैत्यों का नगर घेर लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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