श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 14-27

नवम स्कन्ध: पञ्चमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 14-27 का हिन्दी अनुवाद


दुर्वासा जी ने कहा- 'धन्य है! आज मैंने भगवान के प्रेमी भक्तों का महत्त्व देखा। राजन! मैंने आपका अपराध किया, फिर भी आप मेरे लिये मंगल-कामना ही कर रहे हैं। जिन्होंने भक्तवत्सल भगवान श्रीहरि के चरणकमलों को दृढ़ प्रेमभाव से पकड़ लिया है-उन साधु पुरुषों के लिये कौन-सा कार्य कठिन है? जिनका हृदय उदार है, वे महात्मा भला, किस वस्तु का परित्याग नहीं कर सकते। जिनके मंगलमय नामों के श्रवण मात्र से जीव निर्मल हो जाता है-उन्हीं तीर्थपाद भगवान के चरणकमलों के जो दास हैं, उनके लिये कौन-सा कर्तव्य शेष रह जाता है? महाराज अम्बरीष! आपका हृदय करुणाभाव से परिपूर्ण है। आपने मेरे ऊपर महान् अनुग्रह किया। अहो! आपने मेरे अपराध को भुलाकर मेरे प्राणों की रक्षा की है।'

परीक्षित! जब से दुर्वासा जी भागे थे, तब से अब तक राजा अम्बरीष ने भोजन नहीं किया था। वे उनके लौटने की बाट देख रहे थे। अब उन्होंने दुर्वासा जी के चरण पकड़ लिये और उन्हें प्रसन्न करके विधिपूर्वक भोजन कराया। राजा अम्बरीष बड़े आदर से अतिथि के योग्य सब प्रकार की भोजन-सामग्री ले आये। दुर्वासा जी भोजन करके तृप्त हो गये। अब उन्होंने आदर से कहा- ‘राजन! अब आप भी भोजन कीजिये। अम्बरीष! आप भगवान के परमप्रेमी भक्त हैं। आपके दर्शन, स्पर्श, बातचीत और मन को भगवान की ओर प्रवृत्त करने वाले आतिथ्य से मैं अत्यन्त प्रसन्न और अनुगृहीत हुआ हूँ। स्वर्ग की देवांगनाएँ बार-बार आपके इस उल्ल्वल चरित्र का गान करेंगी। यह पृथ्वी भी आपकी परमपुण्यमयी कीर्ति का संकीर्तन करती रहेगी’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- दुर्वासा जी ने बहुत ही सन्तुष्ट होकर राजा अम्बरीष के गुणों की प्रशंसा की और उसके बाद उनसे अनुमति लेकर आकाशमार्ग से उन ब्रह्मलोक की यात्रा की जो केवल निष्काम कर्म से ही प्राप्त होता है।

परीक्षित! जब सुदर्शन चक्र से भयभीत होकर दुर्वासा जी भागे थे, तब से लेकर उनके लौटने तक एक वर्ष का समय बीत गया। इतने दिनों तक राजा अम्बरीष उनके दर्शन की आकांक्षा में केवल जल पीकर ही रहे। जब दुर्वासा जी चले गये, तब उनके भोजन से बचे हुए अत्यन्त पवित्र अन्न का उन्होंने भोजन किया। अपने कारण दुर्वासा जी का दुःख में और फिर अपनी ही प्रार्थना से उनका छूटना-इन बातों को उन्होंने अपने द्वारा होने पर भी भगवान की ही महिमा समझा। राजा अम्बरीष में ऐसे-ऐसे अनेकों गुण थे। अपने समस्त कर्मों के द्वारा वे परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान के भक्तिभाव की अभिवृद्धि करते रहते थे। उस भक्ति के प्रभाव से उन्होंने ब्रह्मलोक तक के समस्त भोगों को नरक के समान समझा। तदनन्तर राजा अम्बरीष अपने ही समान भक्तपुत्रों पर राज्य का भार छोड़ दिया और स्वयं वे वन में चले गये। वहाँ वे बड़ी धीरता के साथ आत्मस्वरूप भगवान में अपना मन लगाकर गुणों के प्रवाहरूप संसार से मुक्त हो गये।

परीक्षित! महाराज अम्बरीष का यह परमपवित्र आख्यान है। जो इसका संकीर्तन और स्मरण करता है, वह भगवान का भक्त हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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