श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 17-34

नवम स्कन्ध: षष्ठोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद


वीर पुरंजय का दैत्यों के साथ अत्यन्त रोमांचकारी घोर संग्राम हुआ। युद्ध में जो-जो दैत्य उनके सामने आये पुरंजय ने बाणों के द्वारा उन्हें यमराज के हवाले कर दिया। उनके बाणों की वर्षा क्या थी, प्रलयकाल की धधकती हुई आग थी। जो भी उसके सामने आता, छिन्न-भिन्न हो जाता। दैत्यों का साहस जाता रहा। वे रणभूमि छोड़कर अपने-अपने घरों में घुस गये। पुरंजय ने उनके नगर, धन और ऐश्वर्य-सब कुछ जीतकर इन्द्र को दे दिया। इसी से उन राजर्षि को पुर जीतने के कारण ‘पुरंजय’, इन्द्र को वाहन बनाने के कारण ‘इन्द्रवाह’ और बैल के ककुद पर बैठने के कारण ‘काकुत्स्थ’ कहा जाता है।

पुरंजय का पुत्र था अनेना। उसका पुत्र पृथु हुआ। पृथु के विश्वरन्धि, उसके चन्द्र और चन्द्र के युवनाश्व। युवनाश्व के पुत्र हुए शाबस्त, जिन्होंने शाबस्तीपुरी बसायी। शाबस्त के बृहदश्व और उसके कुवलयाश्व हुए। ये बड़े बली थे। इन्होंने उतंक ऋषि को प्रसन्न करने के लिये अपने इक्कीस हजार पुत्रों को साथ लेकर धुन्धु नामक दैत्य का वध किया। इसी से उनका नाम हुआ ‘धुन्धुमार’। धुन्धु दैत्य के मुख की आग से उनके सब पुत्र जल गये। केवल तीन ही बच रहे थे।

परीक्षित! बचे हुए पुत्रों के नाम थे-दृढ़ाश्व, कपिलाश्व और भद्राश्व। दृढ़ाश्व से हर्यश्व और उससे निकुम्भ का जन्म हुआ। निकुम्भ के बर्हणाश्व, उनके कृशाश्व, कृशाश्व के सेनजित् और सेनजित् के युवनाश्व नामक पुत्र हुआ। युवनाश्व सन्तानहीन था, इसलिये वह बहुत दुःखी होकर अपनी सौ स्त्रियों के साथ वन में चला गया। वहाँ ऋषियों ने बड़ी कृपा करके युवनाश्व से पुत्र-प्राप्ति के लिये बड़ी एकाग्रता के साथ इन्द्र देवता का यज्ञ कराया।

एक दिन राजा युवनाश्व को रात्रि के समय बड़ी प्यास लगी। वह यज्ञशाला में गया, किन्तु वहाँ देखा कि ऋषि लोग तो सो रहे हैं। तब जल मिलने का और कोई उपाय न देख उसने वह मन्त्र से अभिमन्त्रित जल ही पी लिया। परीक्षित! जब प्रातःकाल ऋषि लोग सोकर उठे और उन्होंने देखा कि कलश में तो जल ही नहीं है, तब उन लोगों ने पूछा कि ‘यह किसका काम है? पुत्र उत्पन्न करने वाला जल किसने पी लिया? अन्त में जब उन्हें यह मालूम हुआ कि भगवान की प्रेरणा से राजा युवनाश्व ने ही उस जल को पी लिया है तो उन लोगों ने भगवान के चरणों में नमस्कार किया और कहा- ‘धन्य है! भगवान का बल ही वास्तव में बल है’। इसके बाद प्रसव का समय आने पर युवनाश्व की दाहिनी कोख फाड़कर उसके एक चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ। उसे रोते देख ऋषियों ने कहा- ‘यह बालक दूध के लिये बहुत रो रहा है; अतः किसका दूध पियेगा?’ तब इन्द्र ने कहा, ‘मेरा पियेगा’, ‘(माँ धाता)’ ‘बेटा! तू रो मत।’ यह कहकर इन्द्र ने अपनी तर्जनी अँगुली उसके मुँह में डाल दी। ब्राह्मण और देवताओं के प्रसाद से उस बालक के पिता युवनाश्व की भी मृत्यु नहीं हुई। वह वहीं तपस्या करके मुक्त हो गया।

परीक्षित! इन्द्र ने उस बालक का नाम रखा त्रसद्दस्यु, क्योंकि रावण आदि दस्यु (लुटेरे) उससे उद्विग्न एवं भयभीत रहते थे। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता (त्रसद्दस्यु) चक्रवर्ती राजा हुए। भगवान के तेज से तेजस्वी होकर उन्होंने अकेले ही सातों द्वीप वाली पृथ्वी का शासन किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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