श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 1-11

अष्टम स्कन्ध: अथैकोनविंशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


भगवान वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना, बलि का वचन देना और शुक्राचार्य जी का उन्हें रोकना

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजा बलि के ये वचन धर्मभाव से भरे और बड़े मधुर थे। उन्हें सुनकर भगवान वामन ने बड़ी प्रसन्नता से उनका अभिननदन किया और कहा।

श्रीभगवान ने कहा- राजन! आपने जो कुछ कहा, वह आपकी कुल परम्परा के अनुरूप, धर्मभाव से परिपूर्ण, यश को बढ़ाने वाला और अत्यनत मधुर है। क्यों न हो, परलोकहितकारी धर्म के सम्बनध में आप भृगुपुत्र शुक्राचार्य को परम प्रमाण जो मानते हैं। साथ ही अपने कुलवृद्ध पितामह परमशान्त प्रह्लाद जी की आज्ञा भी तो आप वैसे ही मानते हैं। आपकी वंश परम्परा में कोई धैर्यहीन अथवा कृपण पुरुष कभी हुआ ही नहीं। ऐसा भी कोई नहीं हुआ, जिसने ब्राह्मण को कभी दान न दिया हो अथवा जो एक बार किसी को कुछ देने की प्रतिज्ञा करके बाद में मुकर गया हो। दान के अवसर पर याचकों की याचना सुनकर और युद्ध के अवसर पर शत्रु के ललकारने पर उनकी ओर से मुँह मोड़ लेने वाला कायर आपके वंश में कोई भी नहीं हुआ। क्यों न हो, आपकी कुल परम्परा में प्रह्लाद अपने निर्मल यश से वैसे ही शोभायमान होते हैं, जैसे आकाश में चनद्रमा।

आपके कुल में ही हिरण्याक्ष जैसे वीर का जन्म हुआ था। वह वीर जब हाथ में गदा लेकर अकेला ही दिग्विजय के लिये निकला, तब सारी पृथ्वी में घूमने पर भी उसे अपनी जोड़ का कोई वीर न मिला। जब विष्णु भगवान जल में से पृथ्वी का उद्धार कर रहे थे, तब वह उनके सामने आया और बड़ी कठिनाई से उन्होंने उस पर विजय प्राप्त की। परन्तु उसके बहुत बाद भी उन्हें बार-बार हिरण्याक्ष की शक्ति और बल का स्मरण हो आया करता था और उसे जीत लेने पर भी वे अपने को विजयी नहीं समझते थे। जब हिरण्याक्ष के भाई हिरण्यकशिपु को उसके वध का वृत्तांत मालूम हुआ, तब वह अपने भाई का वध करने वाले को मार डालने के लिये क्रोध करके भगवान के निवास स्थान वैकुण्ठ धाम में पहुँचा।

विष्णु भगवान माया रचने वालों में सबसे बड़े हैं और समय को खूब पहचानते हैं। जब उन्होंने देखा कि हिरण्यकशिपु तो हाथ में शूल लेकर काल की भाँति मेरे ही ऊपर धावा कर रहा है, तब उन्होंने विचार किया। ‘जैसे संसार के प्राणियों के पीछे मृत्यु लगी रहती है-वैसे ही मैं जहाँ-जहाँ जाऊँगा, वहीं-वहीं यह मेरा पीछा करेगा। इसलिये मैं इसके हृदय में प्रवेश कर जाऊँ, जिससे यह मुझे देख न सके; क्योंकि यह तो बहिर्मुख है, बाहर की वस्तुएँ ही देखता है।

असुरशिरोमणे! जिस समय हिरण्यकशिपु उन पर झपट रहा था, उसी समय ऐसा निश्चय करके डर से काँपते हुए विष्णु भगवान ने अपने शरीर को सूक्ष्म बना लिया और उसके प्राणों के द्वारा नासिकों में से होकर हृदय में जा बैठे। हिरण्यकशिपु ने उनके लोक को भलीभाँति छान डाला, परन्तु उनका कहीं पता न चला। इस पर क्रोधित होकर वह सिंहनाद करने लगा। उस वीर ने पृथ्वी, स्वर्ग, दिशा, आकाश, पाताल और समुद्र-सब कहीं विष्णु भगवान को ढूँढा, परन्तु वे कहीं भी उसे दिखायी न दिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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