श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 1-16

तृतीय स्कन्ध: पञ्चदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


जय-विजय को सनकादि का शाप

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! दिति को अपने पुत्रों से देवताओं को कष्ट पहुँचने की आशंका थी, इसलिये उसने दूसरों के तेज का नाश करने वाले उस कश्यप जी के तेज (वीर्य) को सौ वर्षो तक अपने उदर में ही रखा। उस गर्भस्थ तेज से ही लोकों में सूर्यादि का प्रकाश क्षीण होने लगा तथा इन्द्रादि लोकपाल भी तेजोहीन हो गये। तब उन्होंने ब्रह्मा जी के पास जाकर कहा कि सब दिशाओं में अन्धकार के कारण बड़ी अव्यवस्था हो रही है।

देवताओं ने कहा- भगवन्! काल आपकी ज्ञानशक्ति को कुण्ठित नहीं कर सकता, इसलिये आपसे कोई बात छिपी नहीं है। आप इस अन्धकार के विषय में भी जानते ही होंगे, हम तो इससे बड़े ही भयभीत हो रहे हैं। देवाधिदेव! आप जगत् के रचयिता और समस्त लोकपालों के मुकुटमणि हैं। आप छोटे-बड़े सभी जीवों का भाव जानते हैं। देव! आओ विज्ञानबल सम्पन्न हैं; आपने माया से ही यह चतुर्भुजरूप और रजोगुण स्वीकार किया है; आपकी उत्पत्ति के वास्तविक कारण को कोई नहीं जान सकता। हम आपको नमस्कार करते हैं। आपमें सम्पूर्ण भुवन स्थित हैं, कार्य-कारणरूप सारा प्रपंच आपका ही शरीर है; किन्तु वास्तव में आप इससे परे हैं। जो समस्त जीवों के उत्पत्ति स्थान आपका अनन्य भाव से ध्यान करते हैं, उन सिद्ध योगियों का किसी प्रकार भी ह्रास नहीं हो सकता; क्योंकि वे आपके कृपाकटाक्ष से कृतकृत्य हो जाते हैं तथा प्राण, इन्द्रिय और मन को जीत लेने के कारण उनका योग भी परिपक्व हो जाता है।

रस्सी में बँधे हुए बैलों की भाँति आपकी वेदवाणी से जकड़ी हुई सारी प्रजा आपकी अधीनता में नियमपूर्वक कर्मानुष्ठान करके आपको बलि समर्पित करती है। आप सबके नियन्ता मुख्य प्राण हैं, हम आपक नमस्कार करते हैं । भूमन्! इस अन्धकार के कारण दिन-रात का विभाग अस्पष्ट हो जाने से लोकों के सारे कर्म लुप्त होते जा रहे हैं, जिससे वे दुःखी हो रहे हैं; उनका कल्याण कीजिये और हम शराणागतों की ओर अपनी अपार दयादृष्टि से निहारिये। देव! आग जिस प्रकार ईधन पकड़कर बढ़ती रहती है, उसी प्रकार कश्यप जी के वीर्य से स्थापित हुआ यह दिति का गर्भ सारी दिशाओं को अन्धकारमय करता हुआ क्रमशः बढ़ रहा है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- महाबाहो! देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान् ब्रह्मा जी हँसे और उन्हें अपनी मधुर वाणी से आनन्दित करते हुए कहने लगे।

श्रीब्रह्मा जी ने कहा- देवताओं! तुम्हारे पूर्वज, मेरे मानस पुत्र सनकादि लोकों की आसक्ति त्यागकर समस्त लोकों में आकाश मार्ग से विचरा करते थे। एक बार वे भगवान् विष्णु के शुद्ध-सत्त्वमय सब लोकों के शिरोभाग में स्थित, वैकुण्ठ धाम में जा पहुँचे। वहाँ सभी लोग विष्णुरूप होकर रहते हैं और वह प्राप्त भी उन्हीं को होता है, जो अन्य सब प्रकार की कामनाएँ छोड़कर केवल भगवच्चरण-शरण की प्राप्ति के लिये ही अपने धर्म द्वारा उनकी आराधना करते हैं। वहाँ वेदान्तप्रति पाद्य धर्ममूर्ति श्रीआदि नारायण हम अपने भक्तों को सुख देने के लिये शुद्ध सत्त्वमयस्वरूप धारण कर हर समय विराजमान रहते हैं। उस लोक में नैःश्रेयस नाम का एक वन है, जो मूर्तिमान् कैवल्य-सा ही जान पड़ता है। वह सब प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाले वृक्षों से सुशोभित है, जो स्वयं हर समय छहों ऋतुओं की शोभा से सम्पन्न रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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