तृतीय स्कन्ध: चतुर्विंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- उत्तम गुणों से सुशोभित मनुकुमारी देवहूति ने जब ऐसी वैराग्ययुक्त बातें कहीं, तब कृपालु कर्दम मुनि को भगवान् विष्णु के कथन का स्मरण हो आया और उन्होंने उससे कहा। कर्मद जी बोले- दोषरहित राजकुमारी! तुम अपने विषय में इस प्रकार का खेद न करो; तुम्हारे गर्भ में अविनाशी भगवान् विष्णु शीघ्र ही पधारेंगे। प्रिये! तुमने अनेक प्रकार के व्रतों का पालन किया है, अतः तुम्हारा कल्याण होगा। अब तुम संयम, नियम, तप और दानादि करती हुई श्रद्धापूर्वक भगवान् का भजन करो। इस प्रकार आराधना करने पर श्रीहरि तुम्हारे गर्भ से अवतीर्ण होकर मेरा यश बढ़ावेंगे और ब्रह्मज्ञान का उपदेश करके तुम्हारे हृदय की अहंकारमयी ग्रन्थि का छेदन करेंगे। श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! प्रजापति कर्दम के आदेश में गौरव-बुद्धि होने से देवहूति ने उस पर पूर्ण विश्वास किया और वह निर्विकार, जगद्गुरु भगवान् श्रीपुरुषोत्तम की आराधना करने लगी। इस प्रकार बहुत समय बीत जाने पर भगवान् मधुसूदन कर्दम जी के वीर्य का आश्रय ले उसके गर्भ से इस प्रकार प्रकट हुए, जैसे काष्ठ में से अग्नि। उस समय आकाश में मेघ जल बरसाते हुए गरज-गरजकर बाजे बजाने लगे, गन्धर्वगण गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्दित होकर नाचने लगीं। आकाश से देवताओं के बरसाये हुए दिव्य पुष्पों की वर्षा होने लगी; सब दिशाओं में आनन्द छा गया, जलाशयों का जल निर्मल हो गया और सभी जीवों के मन प्रसन्न हो गये। इसी समय सरस्वती नदी से घिरे हुए कर्दम जी के उस आश्रम में मरीचि आदि मुनियों के सहित श्रीब्रह्मा जी आये। शत्रुदमन विदुर जी! स्वतःसिद्ध ज्ञान से सम्पन्न अजन्मा ब्रह्मा जी को यह मालूम हो गया था कि साक्षात् परब्रह्म भगवान् विष्णु सांख्यशास्त्र का उपदेश करने के लिये अपने विशुद्ध सत्त्वमय अंश से अवतीर्ण हुए हैं। अतः भगवान् जिस कार्य को करना चाहते थे, उसका उन्होंने विशुद्ध चित्त से अनुमोदन एवं आदर किया और अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों से प्रसन्नता प्रकट करते हुए कर्दम जी से इस प्रकार कहा। श्रीब्रह्मा जी ने कहा- प्रिय कर्दम! तुम दूसरों को मान देने वाले हो। तुमने मेरा सम्मान करते हुए जो मेरी आज्ञा का पालन किया है, इससे तुम्हारे द्वारा निष्कपट-भाव से मेरी पूजा सम्पन्न हुई है। पुत्रों को अपने पिता की सबसे बड़ी सेवा यही करनी चाहिये कि ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर आदरपूर्वक उनके आदेश को स्वीकार करे। बेटा! तुम सभ्य हो, तुम्हारी ये सुन्दरी कन्याएँ अपने वंशों द्वारा इस सृष्टि को अनेक प्रकार से बढ़ावेंगी। अब तुम इन मरीचि आदि मुनिवरों को इनके स्वभाव और रुचि के अनुसार अपनी कन्याएँ समर्पित करो और संसार में अपना सुयश फैलाओ। मुने! मैं जानता हूँ, जो सम्पूर्ण प्राणियों की निधि हैं-उनके अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करने वाले हैं, वे आदिपुरुष श्रीनारायण ही अपनी योगमाया से कपिल के रूप में अवतीर्ण हुए हैं। [फिर देवहूति से बोले-] राजकुमारी! सुनहरे बाल, कमल-जैसे विशाल नेत्र और कमलांकित चरणकमलों वाले शिशु के रूप में कैटभासुर को मारने वाले साक्षात् श्रीहरि ने ही, ज्ञान-विज्ञान द्वारा कर्मों की वासनाओं का मूलोच्छेद करने के लिये, तेरे गर्भ में प्रवेश किया है। वे अविद्याजनित मोह की ग्रन्थियों को काटकर पृथ्वी में स्वच्छन्द विचरेंगे। ये सिद्धगणों के स्वामी और सांख्याचार्यो के भी माननीय होंगे। लोक में तेरी कीर्ति का विस्तार करेंगे और ‘कपिल’ नाम से विख्यात होंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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