श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 1-9

नवम स्कन्ध: दशमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद


भगवान् श्रीराम की लीलाओं का वर्णन

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! खट्वांग के पुत्र दीर्घबाहु और दीर्घबाहु के परम यशस्वी पुत्र रघु हुए। रघु के अज और अज के पुत्र महाराज दशरथ हुए। देवताओं की प्रार्थना से साक्षात् परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीहरि ही अपने अंशांश से चार रूप धारण करके राजा दशरथ के पुत्र हुए। उनके नाम थे- राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न

परीक्षित! सीतापति भगवान् श्रीराम का चरित्र तो तत्त्वदर्शी ऋषियों ने बहुत कुछ वर्णन किया है और तुमने अनेक बार उसे सुना भी है।

भगवान श्रीराम ने अपने पिता राजा दशरथ के सत्य की रक्षा के लिये राजपाट छोड़ दिया और वे वन-वन में फिरते रहे। उनके चरणकमल इतने सुकुमार थे कि परम सुकुमारी श्रीजानकी जी के करकमलों का स्पर्श भी उनसे सहन नहीं होता था। वे ही चरण जब वन में चलते-चलते थक जाते, तब हनुमान और लक्ष्मण उन्हें दबा-दबाकर उनकी थकावट मिटाते। शूर्पणखा को नाक-कान काटकर विरूप कर देने के कारण उन्हें अपनी प्रियतमा श्रीजानकी जी का वियोग भी सहना पड़ा। इस वियोग के कारण क्रोधवश उनकी भौंहें तन गयीं, जिन्हें देखकर समुद्र तक भयभीत हो गया। इसके बाद उन्होंने समुद्र पर पुल बाँधा और लंका में जाकर दुष्ट राक्षसों के जंगल को दावाग्नि के समान दग्ध कर दिया। वे कोसल नरेश हमारी रक्षा करें।

भगवान श्रीराम ने विश्वामित्र के यज्ञ में लक्ष्मण के सामने ही मरीच आदि राक्षसों को मार डाला। वे सब बड़े-बड़े राक्षसों की गिनती में थे। परीक्षित! जनकपुर में सीता जी का स्वयंवर हो रहा था। संसार के चुने हुए वीरों की सभा में भगवान् शंकर का वह भयंकर धनुष रखा हुआ था। वह इतना भारी था कि तीन सौ वीर बड़ी कठिनाई से उसे स्वयंवर सभा में ला सके थे। भगवान श्रीराम ने उस धनुष को बात-की-बात में उठाकर उस पर डोरी चढ़ा दी और खींचकर बीचोंबीच से उसके दो टुकड़े कर दिये-ठीक वैसे ही, जैसे हाथी का बच्चा खेलते-खेलते ईख तोड़ डाले। भगवान् ने जिन्हें अपने वक्षःस्थल पर स्थान देकर सम्मानित किया है, वे श्रीलक्ष्मी जी ही सीता के नाम से जनकपुर में अवतीर्ण हुई थीं। वे गुण, शील, अवस्था, शरीर की गठन और सौन्दर्य में सर्वथा भगवान् श्रीराम के अनुरूप थीं। भगवान् ने धनुष तोड़कर उन्हें प्राप्त कर लिया। अयोध्या को लौटते समय मार्ग में उन परशुराम जी से भेंट हुई जिन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को राजवंश के बीज से भी रहित कर दिया था। भगवान ने उनके बढ़े हुए गर्व को नष्ट कर दिया।

इसके बाद पिता के वचन को सत्य करने के लिये उन्होंने वनवास स्वीकार किया। यद्यपि महाराज दशरथ ने अपनी पत्नी के अधीन होकर ही उसे वैसा वचन दिया था, फिर भी वे सत्य के बन्धन में बँध गये थे। इसलिये भगवान् ने अपने पिता की आज्ञा शिरोधार्य की। उन्होंने प्राणों के समान प्यारे राज्य, लक्ष्मी, प्रेमी, हितैषी, मित्र और महलों को वैसे ही छोड़कर अपनी पत्नी के साथ यात्रा की, जैसे मुक्त संग योगी प्राणों को छोड़ देता है। वन में पहुँचकर भगवान् ने राक्षसराज रावण की बहिन शूर्पणखा को विरूप कर दिया। क्योंकि उसकी बुद्धि बहुत ही कलुषित, काम वासना के कारण अशुद्ध थी। उसके पक्षपाती खर, दूषण, त्रिशिरा आदि प्रधान-प्रधान भाइयों को-जो संख्या में चौदह हजार थे-हाथ में महान् धनुष लेकर भगवान् श्रीराम ने नष्ट कर डाला; और अनेक प्रकार की कठिनाइयों से परिपूर्ण वन में इधर-उधर विचरते हुए निवास करते रहे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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