अष्टम स्कन्ध: अथैकविंशोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! भगवान का चरणकमल सत्यलोक में पहुँच गया। उनके नखचन्द्र की छटा से सत्यलोक की आभा फीकी पड़ गयी। स्वयं ब्रह्मा भी उसके प्रकाश में डूब-से गये। उन्होंने मरीचि आदि ऋषियों, सनन्दन आदि नैष्ठिक ब्रह्मचारियों एवं बड़े-बड़े योगियों के साथ भगवान के चरणकमल की अगवानी की। वेद, उपवेद, नियम, यम, तर्क, इतिहास, वेदांग और पुराण-सहिंताएँ-जो ब्रह्मलोक में मूर्तिमान होकर निवास करते हैं-तथा जिन लोगों ने योगरूप वायु से ज्ञानाग्नि को प्रज्वलित करके कर्ममल को भस्म कर डाला है, वे महात्मा, सबने भगवान के चरण की वन्दना की। इसी चरणकमल के स्मरण की महिमा से ये सब कर्म के द्वारा प्राप्त न होने योग्य ब्रह्मा जी के धाम में पहुँचे हैं। भगवान ब्रह्मा की कीर्ति बड़ी पवित्र है। वे विष्णु भगवान के नाभिकमल से उत्पन्न हुए हैं। अगवानी करने के बाद उन्होंने स्वयं विश्वरूप भगवान के ऊपर उठे हुए चरण का अर्घ्यपाद्य से पूजन किया, प्रक्षालन किया। पूजा करके बड़े प्रेम और भक्ति से उन्होंने भगवान की स्तुति की। परीक्षित! ब्रह्मा के कमण्डलु का वही जल विश्वरूप भगवान के पाँव पखारने से पवित्र होने के कारण उन गंगाजी के रूप में परिणत हो गया, जो आकाशमार्ग से पृथ्वी पर गिरकर तीनों लोकों को पवित्र करती हैं। ये गंगाजी क्या हैं, भगवान की मूर्तिमान् उज्ज्वल कीर्ति। जब भगवान ने अपने स्वरूप को कुछ छोटा कर लिया, अपनी विभूतियों को कुछ समेट लिया, तब ब्रह्मा आदि लोकपालों ने अपने अनुचरों के साथ बड़े आदर भाव से अपने स्वामी भगवान को अनेकों प्रकार की भेंटें समर्पित कीं। उन लोगों ने जल-उपहार, माला, दिव्य गन्धों से भरे अंगराग, सुगन्धित धूप, दीप, खील, अक्षत, फल, अंकुर, भगवान की महिमा और प्रभाव से युक्त स्तोत्र, जयघोष, नृत्य, बाजे-गाजे, गान एवं शंख आदि दुन्दुभि के शब्दों से भगवान की आराधना की। उस समय ऋक्षराज जाम्बवान मन के समान वेग से दौड़कर सब दिशाओं में भेरी बजा-बजाकर भगवान की मंगलमय विजय की घोषणा कर आये। दैत्यों ने देखा कि वामन जी ने तीन पग पृथ्वी माँगने के बहाने सारी पृथ्वी ही छीन ली। तब वे सोचने लगे कि हमारे स्वामी बलि इस समय यज्ञ में दीक्षित हैं, वे तो कुछ कहेंगे नहीं। इसलिये बहुत चिढ़कर वे आपस में कहने लगे- ‘अरे, यह ब्राह्मण नहीं है। यह सबसे बड़ा मायावी विष्णु है। ब्राह्मण के रूप में छिपकर यह देवताओं का काम बनाना चाहता है। जब हमारे स्वामी यज्ञ में दीक्षित होकर किसी को किसी प्रकार का दण्ड देने के लिये उपरत हो गये हैं, तब इस शत्रु ने ब्रह्मचारी का वेष बनाकर पहले तो याचना की और पीछे हमारा सर्वस्व हरण कर लिया। यों तो हमारे स्वामी सदा ही सत्यनिष्ठ हैं, परन्तु यज्ञ में दीक्षित होने पर वे इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। वे ब्राह्मणों के बड़े भक्त हैं तथा उनके हृदय में दया भी बहुत है। इसलिये वे कभी झूठ नहीं बोल सकते। ऐसी अवस्था में हम लोगों का यह धर्म है कि इस शत्रु को मार डालें। इससे हमारे स्वामी बलि की सेवा भी होती है।’ यों सोचकर राजा बलि के अनुचर असुरों ने अपने-अपने हथियार उठा लिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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