श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 1-14

पंचम स्कन्ध: अष्टम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


भरत जी का मृग के मोह में फँसकर मृगयोनि में जन्म लेना

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- एक बार भरत जी गण्डकी में स्नान कर नित्य-नैमित्तिक तथा शौचादि अन्य आवश्यक कृत्यों से निवृत्त हो प्रणव का जप करते हुए तीन मुहूर्त तक नदी की धारा के पास बैठे रहे।

राजन्! इसी समय एक हरिनी प्यास से व्याकुल हो जल पीने के लिये अकेली ही उस नदी के तीर पर आयी। अभी वह जल पी ही रही थी कि पास ही गरजते हुए सिंह की लोक भयंकर दहाड़ सुनायी पड़ी। हरिन जाति तो स्वभाव से ही डरपोक होती है। वह पहले ही चौकन्नी होकर इधर-उधर देखती जाती थी। अब ज्यों ही उसके कान में वह भीषण शब्द पड़ा कि सिंह के डर के मारे उसका कलेजा धड़कने लगा और नेत्र कातर हो गये। प्यास अभी बुझी न थी, किन्तु अब प्राणों पर आ बनी थी। इसलिये उसने भयवश एकाकी नदी पार करने के लिये छलाँग मारी। उसके पेट में गर्भ था, अतः उछलते समय अत्यन्त भय के कारण उसका गर्भ अपने स्थान से हटकर योनिद्वार से निकलकर नदी के प्रवाह में गिर गया। वह कृष्णमृगपत्नी अकस्मात् गर्भ के गिर जाने, लम्बी छलाँग मारने तथा सिंह से डरी होने के कारण बहुत पीड़ित हो गयी थी। अब अपने झुंड से भी उसका बिछोह हो गया, इसलिये वह किसी गुफा में जा पड़ी और वहीं मर गयी।

राजर्षि भरत ने देखा कि बेचारा हरिनी का बच्चा, अपने बन्धुओं से बिछुड़कर नदी के प्रवाह में बह रहा है। इससे उन्हें उस पर बड़ी दया आयी और वे आत्मीय के समान उस मातृहीन बच्चे को अपने आश्रम पर ले आये। उस मृगछौने के प्रति भरत जी की ममता उत्तरोत्तर बढ़ती ही गयी। वे नित्य उसके खाने-पीने का प्रबन्ध करने, व्याघ्रादि से बचाने, लाड़-लड़ाने और पुचकारने आदि की चिंता में ही डूबे रहने लगे। कुछ ही दिनों में उनके यम-नियम और भगवत्पूजा आदि आवश्यक कृत्य एक-एक करके छूटने लगे और अंत में सभी छूट गए। उन्हें ऐसा विचार रहने लगा- ‘अहो! कैसे खेद की बात है! इस बेचारे दीन मृगछौने को कालचक्र के वेग ने अपने झुंड, सुहृद् और बन्धुओं से दूर करके मेरी शरण में पहुँचा दिया है। यह मुझे ही अपना माता-पिता, भाई-बन्धु और यूथ के साथी-संगी समझता है। इसे मेरे सिवा और किसी का पता नहीं है और मुझमें इसका विश्वास भी बहुत है। मैं भी शरणागत की उपेक्षा करने में जो दोष हैं, उन्हें जानता हूँ। इसलिये मुझे अब अपने इस आश्रित का सब प्रकार की दोष बुद्धि छोड़कर अच्छी तरह पालन-पोषण और प्यार-दुलार करना चाहिये। निश्चय ही शान्त-स्वभाव और दीनों की रक्षा करने वाले परोपकारी सज्जन ऐसे शरणागत की रक्षा के लिये अपने बड़े-से-बड़े स्वार्थ की भी परवाह नहीं करते’।

इस प्रकार उस हरिन के बच्चे में आसक्ति बढ़ जाने से बैठते, सोते, टहलते, ठहरते और भोजन करते समय भी उनका चित्त उसके स्नेहपाश में बँधा रहता था। जब उन्हें कुश, पुष्प, समिधा, पत्र और फल-मूलादि लाने होते तो भेड़ियों और कुत्तों के भय से उसे वे साथ लेकर ही वन में जाते। मार्ग में जहाँ-तहाँ कोमल घास आदि को देखकर मुग्धभाव से वह हरिणशावक अटक जाता तो वे अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदय से दयावश उसे अपने कंधे पर चढ़ा लेते। इसी प्रकार कभी गोद में लेकर और कभी छाती से लगाकर उसका दुलार करने में भी उन्हें बड़ा सुख मिलता। नित्य-नैमित्तिक कर्मों को करते समय भी राजराजेश्वर भरत बीच-बीच में उठ-उठकर उस मृग बालक को देखते और जब उस पर उनकी दृष्टि पड़ती, तभी उनके चित्त को शान्ति मिलती। उस समय उसके लिये मंगलकामना करते हुए वे कहने लगते- ‘बेटा! तेरा सर्वत्र कल्याण हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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