षष्ठ स्कन्ध: सप्तम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन्! देवाचार्य बृहस्पति जी ने अपने प्रिय शिष्य देवताओं को किस कारण त्याग दिया था? देवताओं ने अपने गुरुदेव का ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया था, आप कृपा करके मुझे बतलाइये। श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! इन्द्र को त्रिलोकी का ऐश्वर्य पाकर घमण्ड हो गया था। इस घमण्ड के कारण वे धर्म मर्यादा का, सदाचार का उल्लंघन करने लगे थे। एक दिन की बात है, वे भरी सभा में अपनी पत्नी शची के साथ ऊँचे सिंहासन पर बैठे हुए थे, उनचास मरुद्गण, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, आदित्य, ऋभुगण, विश्वदेव, साध्यगण और दोनों अश्विनीकुमार उनकी सेवा में उपस्थित थे। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, ब्रह्मवादी मुनिगण, विद्याधर, अप्सराएँ, किन्नर, पक्षी और नाग उनकी सेवा और स्तुति कर रहे थे। सब ओर ललित स्वर से देवराज इन्द्र की कीर्ति का गान हो रहा था। ऊपर की ओर चन्द्रमण्डल के समान सुन्दर श्वेत छत्र शोभायमान था। चँवर, पंखे आदि महाराजोचित सामग्रियाँ यथा स्थान सुसज्जित थीं। इस दिव्य समान में देवराज इन्द्र बड़े ही सुशोभित हो रहे थे। इसी समय देवराज इन्द्र और समस्त देवताओं के परम आचार्य बृहस्पति जी वहाँ आये। उन्हें सुर-असुर सभी नमस्कार करते हैं। इन्द्र ने देख लिया कि वे सभा में आये हैं, परन्तु वे न तो खड़े हुए और न आसन आदि देकर गुरु का सत्कार ही किया। यहाँ तक कि वे अपने आसन से हिले-डुले तक नहीं। त्रिकालदर्शी समर्थ बृहस्पति जी ने देखा कि यह ऐश्वर्यमद का दोष हैं। बस, वे झटपट वहाँ से निकलकर चुपचाप अपने घर चले आये। परीक्षित! उसी समय देवराज इन्द्र को चेत हुआ। वे समझ गये कि मैंने अपने गुरुदेव की अवहेलना की है। वे भरी सभा में स्वयं ही अपनी निन्दा करने लगे। ‘हाय-हाय! बड़े खेद की बात है कि भरी सभा में मुर्खतावश मैंने ऐश्वर्य के नशे में चूर होकर अपने गुरुदेव का तिरस्कार कर दिया। सचमुच मेरा यह कर्म अत्यन्त निन्दनीय है। भला, कौन विवेकी पुरुष इस स्वर्ग की राजलक्ष्मी को पाने की इच्छा करेगा? देखो तो सही, आज इसी ने मुझ देवराज को भी असुरों के-से रजोगुणी भाव से भर दिया। जो लोग यह कहते हैं कि सार्वभौम राजसिंहासन पर बैठा हुआ सम्राट् किसी के आने पर राजसिंहासन से न उठे, वे धर्म का वास्तविक स्वरूप नहीं जानते। ऐसा उपदेश करने वाले कुमार्ग की ओर ले जाने वाले हैं। वे स्वयं घोर नरक में गिरते हैं। उनकी बात पर जो लोग विश्वास करते हैं, वे पत्थर की नाव की तरह डूब जाते हैं। मेरे गुरुदेव बृहस्पति जी ज्ञान के अथाह समुद्र हैं। मैंने बड़ी शठता की। अब मैं उनके चरणों में अपना माथा टेककर उन्हें मनाऊँगा’। परीक्षित! देवराज इन्द्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् बृहस्पति जी अपने घर से निकलकर योगबल से अन्तर्धान हो गये। देवराज इन्द्र ने अपने गुरुदेव को बहुत ढूँढ़ा-ढूँढ़वाया; परन्तु उनका कहीं पता न चला। तब वे गुरु के बिना अपने को सुरक्षित न समझकर देवताओं के साथ अपनी बुद्धि के अनुसार स्वर्ग की रक्षा का उपाय सोचने लगे, परन्तु वे कुछ भी सोच न सके। उनका चित्त अशान्त ही बना रहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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