श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 17 श्लोक 1-10

पंचम स्कन्ध: सप्तदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


गंगा जी का विवरण और भगवान् शंकरकृत संकर्षणदेव की स्तुति

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! जब राजा बलि की यज्ञशाला में साक्षात् यज्ञमूर्ति भगवान् विष्णु ने त्रिलोकी को नापने के लिए अपना पैर फैलाया, तब उनके बायें अँगूठे के नख से ब्रह्माण्डकटाह का ऊपर का भाग फट गया। उस छिद्र में होकर जो ब्रह्माण्ड से बाहर के जल की धारा आयी, वह उस चरणकमल को धोने से उसमें लगी हुई केसर के मिलने से लाल हो गयी। उस निर्मल धारा का स्पर्श होते ही संसार के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, किन्तु वह सर्वथा निर्मल ही रहती है। पहले किसी और नाम से न पुकारकर उसे ‘भगवदत्पदी’ ही कहते थे। वह धारा हजारों युग बीतने पर स्वर्ग के शिरोभाग में स्थित ध्रुवलोक में उतरी, जिसे ‘विष्णुपद’ भी कहते हैं।

वीरव्रत परीक्षित! उस ध्रुवलोक में उत्तानपाद के पुत्र परम भागवत ध्रुवजी रहते हैं। वे नित्यप्रति बढ़ते हुए भक्तिभाव से ‘यह हमारे कुल देवता का चरणोंदक है’ ऐसा मानकर आज भी उस जल को बड़े आदर से सिर पर चढ़ाते हैं। उस समय प्रेमोवेश के कारण उनका हृदय अत्यन्त गद्गद हो जाता है, उत्कण्ठावश बरबस मुँदे हुए दोनों नयनकमलों से निर्मल आँसुओं की धारा बहने लगती है और शरीर में रोमांच हो आता है। इसके पश्चात् आत्मनिष्ठ सप्तर्षिगण उनका प्रभाव जानने के कारण ‘यही तपस्या की आत्यन्तिक सिद्धि है’ ऐसा मानकर उसे आज भी इस प्रकार आदरपूर्वक अपने जटाजूट पर वैसे ही धारण करते हैं, जैसे मुमुक्षुजन प्राप्त हुई मुक्ति को। यों ये बड़े ही निष्काम हैं; सर्वात्मा भगवान् वासुदेव की निश्चल भक्ति को ही अपना परम धन मानकर इन्होंने अन्य सभी कामनाओं को त्याग दिया है, यहाँ तक कि आत्मज्ञान को भी ये उसके सामने कोई चीज नहीं समझते। वहाँ से गंगाजी करोड़ों विमानों से घिरे हुए आकाश में होकर उतरती हैं और चन्द्रमण्डल को आप्लावित करती मेरु के शिखर पर ब्रह्मपुरी में गिरती हैं। वहाँ ये सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा नाम से चार धाराओं में विभक्त हो जाती हैं तथा अलग-अलग चारों दिशाओं में बहती हुई अन्त में नद-नदियों के अधीश्वर समुद्र में गिर जाती हैं।

इनमें सीता ब्रह्मपुरी से गिरकर केसराचलों के सर्वोच्च शिखरों में होकर नीचे की ओर बहती गन्धमादन के शिखरों पर गिरती है और भद्राश्ववर्ष को प्लावित कर पूर्व की ओर खारे समुद्र में मिल जाती है। इसी प्रकार चक्षु माल्यवान् के शिखर पर पहुँचकर वहाँ से बरोक-टोक केतुमाल वर्ष में बहती पश्चिम की ओर क्षार समुद्र में जा मिलती है। भद्रा मेरु पर्वत के शिखर से उत्तर की ओर गिरती है तथा एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर जाती अन्त में श्रृंगवान् के शिखर से गिरकर उत्तर कुरु देश में होकर उत्तर की ओर बहती हुई समुद्र में मिल जाती है।

अलकनन्दा ब्रह्मपुरी से दक्षिण की ओर गिरकर अनेकों गिरिशिखरों को लाँघती हेमकूट पर्वत पर पहुँचती है, वहाँ से अत्यन्त तीव्र वेग से हिमालय के शिखरों को चीरती हुई भारतवर्ष में आती है और फिर दक्षिण की ओर समुद्र में जा मिलती है। इसमें स्नान करने के लिये आने वाले पुरुषों को पद-पद पर अश्वमेध और राजसूय आदि यज्ञों का फल भी दुर्लभ नहीं है। प्रत्येक वर्ष में मेरु आदि पर्वतों से निकली हुई और भी सैकड़ों नद-नदियाँ हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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