श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 87 श्लोक 1-10

दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितम अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितम अध्याय श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


वेदस्तुति

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन्! ब्रह्म कार्य और कारण से सर्वथा परे हैं। सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण उसमें हैं ही नहीं। मन और वाणी से संकेत रूप में भी उसका निर्देश नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर समस्त श्रुतियों का विषय गुण ही है। (वे जिस विषय का वर्णन करती है उसके गुण, जाति, क्रिया अथवा रूढ़ि का ही निर्देश करती हैं) ऐसी स्थिति में श्रुतियाँ निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन किस प्रकार करती हैं? क्योंकि निर्गुण वस्तु का स्वरूप तो उनकी पहुँच परे है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! (भगवान सर्वशक्तिमान् और गुणों के निधान हैं। श्रुतियाँ स्पष्टतः सगुण का ही निरूपण करती हैं, परन्तु विचार करने पर उनका तात्पर्य निगुण ही निकलता है। विचार करने के लिये ही) भगवान ने जीवों के लिये बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणों की सृष्टि की है। इनके द्वारा वे स्वेच्छा से अर्थ, धर्म और काम अथवा मोक्ष का अर्जन कर सकते हैं (प्राणों के द्वारा जीवन-धारण, श्रवणादि इन्द्रियों के द्वारा महावाक्य आदि का श्रवण, मन के द्वारा मनन और बुद्धि के द्वारा निश्चय करने पर श्रुतियों के तात्पर्य निर्गुण स्वरूप का साक्षात्कार हो सकता है। इसलिए श्रुतियाँ सगुण का प्रतिपादन करने पर भी वस्तुतः निर्गुणपरक हैं)। ब्रह्म का प्रतिपादन करने वाली उपनिषद का यही स्वरूप है। इसे पूर्वजों के भी पूर्वज सनकादि ऋषियों ने आत्मनिश्चय के द्वारा धारण किया है। जो भी मनुष्य इसे श्रद्धापूर्वक धारण करता है, वह बन्धन के कारण समस्त उपाधियों- अनात्मभावों से मुक्त होकर अपने परम कल्याणस्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

इस विषय में मैं तुम्हें गाथा सुनाता हूँ। उस गाथा के साथ स्वयं भगवान नारायण का सम्बन्ध है। वह गाथा देवर्षि नारद और ऋषिश्रेष्ठ नारायण का संवाद है।

एक समय की बात है, भगवान के प्यारे भक्त देवर्षि नारद जी विभिन्न लोकों में विचरण करते हुए सनातन ऋषि भगवान नारायण का दर्शन करने के लिये बदरिकाश्रम गये।

भगवान नारायण मनुष्यों के अभ्युदय (लौकिक कल्याण) और परम निःश्रेयस (भगवत्स्वरूप अथवा मोक्ष की प्राप्ति) के लिये इस भारत वर्ष में कल्प के प्रारम्भ से ही धर्म, ज्ञान और संयम के साथ महान् तपस्या कर रहे हैं। परीक्षित! एक दिन वे कलापग्रामवासी सिद्ध ऋषियों के बीच में बैठे हुए थे। उस समय नारद जी ने उन्हें प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यही प्रश्न पूछा, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो। भगवान नारायण ने ऋषियों की उस भरी सभा में नारद जी को उनके प्रश्न का उत्तर दिया और वह कथा सुनायी, जो पूर्वकालीन जनलोकनिवासियों में परस्पर वेदों के तात्पर्य और ब्रह्म के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करते समय कही गयी थी।

भगवान नारायण ने कहा- नारद जी! प्राचीन काल की बात है। एक बार जनलोक में वहाँ रहने वाले ब्रह्मा के मानस पुत्र नैष्ठिक ब्रह्मचारी सनक, सनन्दन, सनातन आदि परमर्षियों का ब्रह्मसत्र (ब्रह्मविषयक विचार या प्रवचन) हुआ था। उस समय तुम मेरी श्वेतद्वीपाधिपति अनिरुद्ध-मूर्ति का दर्शन करने के लिये श्वेतद्वीप चले गये थे। उस समय वहाँ उस ब्रह्म के सम्बन्ध बड़ी ही सुन्दर चर्चा हुई थी, जिसके विचय में श्रुतियाँ भी मौन धारण कर लेतीं हैं, स्पष्ट वर्णन न करके तात्पर्यरूप से लक्षित कराती हुई उसी में सो जाती हैं। उस ब्रह्मसत्र में यही प्रश्न उपस्थित किया गया था, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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