श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 17 श्लोक 1-13

अष्टम स्कन्ध: सप्तदशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


भगवान का प्रकट होकर अदिति को वर देना

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! अपने पतिदेव महर्षि कश्यप जी का उपदेश प्राप्त करके अदिति ने बड़ी सावधानी से बारह दिन तक इस व्रत का अनुष्ठान किया। बुद्धि को सारथि बनाकर मन की लगाम से उसने इन्द्रियरूप दुष्ट घोड़ों को अपने वश में कर लिया और एकनिष्ठ बुद्धि से वह पुरुषोत्तम भगवान का चिन्तन करती रही। उसने एकाग्र बुद्धि से अपने मन को सर्वात्मा भगवान वासुदेव में पूर्ण रूप से लगाकर पयोव्रत का अनुष्ठान किया। तब पुरुषोत्तम भगवान उसके सामने प्रकट हुए।

परीक्षित! वे पीताम्बर धारण किये हुए थे, चार भुजाएँ थीं और शंख, चक्र, गदा लिये हुए थे। अपने नेत्रों के सामने भगवान को सहसा प्रकट हुए देख अदिति सादर उठ खड़ी हुई और फिर प्रेम से विह्वल होकर उसने पृथ्वी पर लोटकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। फिर उठकर, हाथ जोड़, भगवान की स्तुति करने की चेष्टा की; परन्तु नेत्रों में आनन्द के आँसू उमड़ आये, उससे बोला न गया। सारा शरीर पुलकित हो रहा था, दर्शन के आनन्दोल्लास से उसके अंगों में कम्प होने लगा था, वह चुपचाप खड़ी रही। परीक्षित! देवी अदिति अपने प्रेमपूर्ण नेत्रों से लक्ष्मीपति, विश्वपति, यज्ञेश्वर-भगवान को इस प्रकार देख रही थी, मानो वह उन्हें पी जायेगी। फिर बड़े प्रेम से, गद्गद वाणी से, धीरे-धीरे उसने भगवान की स्तुति की।

अदिति ने कहा- आप यज्ञ के स्वामी हैं और स्वयं यज्ञ भी आप ही हैं। अच्युत! आपके चरणकमलों का आश्रय लेकर लोग भवसागर से तर जाते हैं। आपके यशकीर्तन का श्रवण भी संसार से तारने वाला है। आपके नामों के श्रवणमात्र से ही कल्याण हो जाता है। आदिपुरुष! जो आपकी शरण में आ जाता है, उसकी सारी विपत्तियों का आप नाश कर देते हैं। भगवन! आप दीनों के स्वामी हैं। आप हमारा कल्याण कीजिये। आप विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के कारण हैं और विश्वरूप भी आप ही हैं। अनन्त होने पर भी स्वच्छन्दता से आप अनेक शक्ति और गुणों को स्वीकार कर लेते हैं। आप सदा अपने स्वरूप में ही स्थित रहते हैं। नित्य-निरन्तर बढ़ते हुए पूर्ण बोध के द्वारा आप हृदय के अन्धकार को नष्ट करते हैं। भगवन! मैं आपको नमस्कार करती हूँ।

प्रभो! अनन्त! जब आप प्रसन्न हो जाते हैं, तब मनुष्यों को ब्रह्मा जी की दीर्घ आयु, उनके ही समान दिव्य शरीर, प्रत्येक अभीष्ट वस्तु, अतुलित धन, स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल, योग की समस्त सिद्धियाँ, अर्थ-धर्म-कामरूप त्रिवर्ग और केवल ज्ञान तक प्राप्त हो जाता है। फिर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना आदि जो छोटी-छोटी कामनाएँ हैं, उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब अदिति ने इस प्रकार कमलनयन भगवान की स्तुति की, तब समस्त प्राणियों के हृयद में उनकी गति-विधि जानने वाले भगवान ने यह बात कही।

श्रीभगवान ने कहा- देवताओं की जननी अदिति! तुम्हारी चिरकालीन अभिलाषा को मैं जानता हूँ। शत्रुओं ने तुम्हारे पुत्रों की सम्पत्ति छीन ली है, उन्हें उनके लोक (स्वर्ग) से खदेड़ दिया है। तुम चाहती हो कि युद्ध में तुम्हारे पुत्र उन मतवाले और बली असुरों को जीतकर विजय लक्ष्मी प्राप्त करें, तब तुम उनके साथ भगवान की उपासना करो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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