षष्ठ स्कन्ध: द्वादश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! वृत्रासुर रणभूमि में अपना शरीर छोड़ना चाहता था, क्योंकि उसके विचार से इन्द्र पर विजय प्राप्त करके स्वर्ग पाने की अपेक्षा मरकर भगवान् को प्राप्त करना श्रेष्ठ था। इसलिये जैसे प्रलयकालीन जल में कैटभासुर भगवान् विष्णु पर चोट करने के लिये दौड़ा था, वैसे ही वह भी त्रिशूल उठाकर इन्द्र पर टूट पड़ा। वीर वृत्रासुर ने प्रलयकालीन अग्नि की लपटों के समान तीखी नोकों वाले त्रिशूल को घुमाकर बड़े वेग से इन्द्र पर चलाया और अत्यन्त क्रोध से सिंहनाद करके बोला- ‘पापी इन्द्र! अब तू बच नहीं सकता’। इन्द्र ने यह देखकर कि वह भयंकर त्रिशूल ग्रह और उल्का के समान चक्कर काटता हुआ आकाश में आ रहा है, किसी प्रकार की अधीरता नहीं प्रकट की और उस त्रिशूल के साथ ही वासुकि नाग के समान वृत्रासुर की विशाल भुजा अपने सौ गाँठों वाले वज्र से काट डाली। एक बाँह कट जाने पर वृत्रासुर को बहुत क्रोध हुआ। उसने वज्रधारी इन्द्र के पास जाकर उनकी ठोड़ी में और गजराज ऐरावत पर परिघ से ऐसा प्रहार किया कि उनके हाथ से वह वज्र गिर पड़ा। वृत्रासुर के इस अत्यन्त अलौकिक कार्य को देखकर देवता, असुर, चारण, सिद्धगण आदि सभी प्रशंसा करने लगे। परन्तु इन्द्र का संकट देखकर वे ही लोग बार-बार ‘हाय-हाय!’ कहकर चिल्लाने लगे। परीक्षित! वह वज्र इन्द्र के हाथ से छूटकर वृत्रासुर के पास ही जा पड़ा था। इसलिये लज्जित होकर इन्द्र ने उसे फिर नहीं उठाया। तब वृत्रासुर ने कहा- ‘इन्द्र! तुम वज्र उठाकर अपने शत्रु को मार डालो। यह विषाद करने का समय नहीं है। (देखो- ) सर्वज्ञ, सनातन, आदिपुरुष भगवान् ही जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने में समर्थ हैं। उनके अतिरिक्त देहाभिमानी और युद्ध के लिये उत्सुक आततायियों को सर्वदा जय ही नहीं मिलती। वे कभी जीतते हैं तो कभी हारते हैं। ये सब लोक और लोकपाल जाल में फँसे हुए पक्षियों की भाँति जिसकी अधीनता में विवश होकर चेष्टा करते हैं, वह काल ही सबकी जय-पराजय का कारण है। वही काल मनुष्य के मनोबल, इन्द्रियबल, शरीरबल, प्राण जीवन और मृत्यु के रूप में स्थित है। मनुष्य उसे न जानकर जड़ शरीर को ही जय-पराजय आदि का कारण समझता है। इन्द्र! जैसे काठ की पुतली और यन्त्र का हरिण नचाने वाले के हाथ में होते हैं, वैसे ही तुम समस्त प्राणियों को भगवान् के अधीन समझो। भगवान् के कृपा-प्रसाद के बिना पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, पंचभूत, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण-चतुष्टय- ये कोई भी इस विश्व की उत्पत्ति आदि करने में समर्थ नहीं हो सकते। जिसे इस बात का पता नहीं है कि भगवान् ही सबका नियन्त्रण करते हैं, वही इस परतन्त्र जीव को स्वतन्त्र कर्ता-भोक्ता मान बैठता है। वस्तुतः स्वयं भगवान् ही प्राणियों के द्वारा प्राणियों की रचना और उन्हीं के द्वारा उनका संहार करते हैं। जिस प्रकार इच्छा न होने पर भी समय विपरीत होने से मनुष्य को मृत्यु और अपयश आदि प्राप्त होते हैं- वैसे ही समय की अनुकूलता होने पर इच्छा न होने पर भी उसे आयु, लक्ष्मी, यश और ऐश्वर्य आदि भोग भी मिल जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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