श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 80 श्लोक 1-12

दशम स्कन्ध: अशीतितम अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अशीतितम अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


श्रीकृष्ण के द्वारा सुदामा जी का स्वागत

राजा परीक्षित ने कहा- भगवन्! प्रेम और मुक्ति के दाता परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति अनन्त है। इसलिये उनकी माधुर्य और ऐश्वर्य से भरी लीलाएँ भी अनन्त हैं। अब हम उनकी दूसरी लीलाएँ, जिनका वर्णन आपने अब तक नहीं किया है, सुनना चाहते हैं।

ब्रह्मन्! यह जीव विषय-सुख को खोजते-खोजते अत्यन्त दुःखी हो गया है। वे बाण की तरह इसके चित्त में चुभते रहते हैं। ऐसी स्थिति में ऐसा कौन-सा रसिक- रस का विशेषज्ञ पुरुष होगा, जो बार-बार पवित्रकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण की मंगलमयी लीलाओं का श्रवण करके भी उनसे विमुख होना चाहेगा। जो वाणी भगवान के गुणों का गान करती है, वही सच्ची वाणी है। वे ही हाथ सच्चे हाथ हैं, जो भगवान की सेवा के लिये काम करते हैं। वही मन सच्चा मन हैं, जो चराचर प्राणियों में निवास करने वाले भगवान का स्मरण करता है; और वे ही कान वास्तव में कान कहने योग्य हैं, जो भगवान की पुण्यमयी कथाओं का श्रवण करते हैं। वही सिर सिर है, जो चराचर जगत् को भगवान की चल-अचल प्रतिमा समझकर नमस्कार करता है; और जो सर्वत्र भगद्विग्रह का दर्शन करते हैं, वे ही नेत्र वास्तव में नेत्र हैं। शरीर के जो अंग भगवान और उनके भक्तों के चरणोंदक का सेवन करते हैं, वे ही अंग वास्तव में अंग हैं; सच पूछिये तो उन्हीं का होना सफल है।

सूत जी कहते हैं- शौनकादि ऋषियों! जब राजा परीक्षित ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान श्रीशुकदेव जी का हृदय भगवान श्रीकृष्ण में ही तल्लीन हो गया। उन्होंने परीक्षित से इस प्रकार कहा।

श्रीशुकदेव जी कहा- परीक्षित! एक ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्ण के परम मित्र थे। वे बड़े ब्रह्मज्ञानी, विषयों से विरक्त, शान्तचित्त और जितेन्द्रिय थे। वे गृहस्थ होने पर भी किसी प्रकार का संग्रह-परिग्रह न रखकर प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाता, उसी में सन्तुष्ट रहते थे। उनके वस्त्र तो फटे-पुराने थे ही, उनकी पत्नी के भी वैसे ही थे। वह भी अपने पति के समान ही भूख से दुबली हो रही थी। एक दिन दरिद्रता की प्रतिमूर्ति दुःखिनी पतिव्रता भूख के मारे काँपती हुई अपने पतिदेव के पास गयी और मुरझाये हुए मुँह से बोली- ‘भगवन्! साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण आपके सखा हैं। वे भक्तवांछाकल्पतरु, शरणागतवत्सल और ब्राह्मणों के परम भक्त हैं। परम भाग्यवान् आर्यपुत्र! वे साधु-संतों के, सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं। आप उनके पास जाइये। जब वे जानेंगे कि आप कुटुम्बी हैं और अन्न के बिना दुःखी हो रहे हैं तो वे आपको बहुत-सा धन देंगे। आजकल वे भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवों के स्वामी के रूप में द्वारका में ही निवास कर रहे हैं और इतने उदार हैं कि जो उनके चरणकमलों का स्मरण करते हैं, उन प्रेमी भक्तों को वे अपने-आप तक का दान कर डालते हैं। ऐसी स्थिति में जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों को यदि धन और विषय-सुख, जो अत्यन्त वाञ्छनीय नहीं है, दे दें तो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है?’

इस प्रकार जब उन ब्राह्मण देवता की पत्नी ने अपने पतिदेव से कई बार बड़ी नम्रता से प्रार्थना की, तब उन्होंने सोचा कि ‘धन की तो कोई बात नहीं है; परन्तु भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन हो जायेगा, यह तो जीवन का बहुत बड़ा लाभ है’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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