श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 1-16

तृतीय स्कन्ध: अथ द्वाविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अथ द्वाविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


देवहूति के साथ कर्दम प्रजापति का विवाह

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! इस प्रकार जब कर्दम जी ने मनु जी के सम्पूर्ण गुणों और कर्मों की श्रेष्ठता का वर्णन किया तो उन्होंने उन निवृत्तिपरायण मुनि से कुछ सकुचाकर कहा।

मनु जी ने कहा- मुने! वेदमूर्ति भगवान् ब्रह्मा ने अपने वेदमय विग्रह की रक्षा के लिए तप, विद्या और योग से सम्पन्न तथा विषयों में अनासक्त आप ब्राह्मणों को अपने मुख से प्रकट किया है और फिर उन सहस्र चरणों वाले विराट् पुरुष ने आप लोगों की रक्षा के लिये ही अपनी सहस्रों भुजाओं से हम क्षत्रियों को उत्पन्न किया है। इस प्रकार ब्राह्मण उनके हृदय और क्षत्रिय शरीर कहलाते हैं। अतः एक ही शरीर से सम्बद्ध होने के कारण अपनी-अपनी और एक-दूसरे की रक्षा करने वाले उन ब्राह्मण और क्षत्रियों की वास्तव में श्रीहरि ही रक्षा करते हैं, जो समस्त कार्यकारणरूप होकर भी वास्तव में निर्विकार हैं। आपके दर्शनमात्र से ही मेरे सारे सन्देह दूर हो गये, क्योंकि आपने मेरी प्रशंसा के मिस से स्वयं ही प्रजापालन की इच्छा वाले के धर्मों का बड़े प्रेम से निरूपण किया है। आपका दर्शन अजितेन्द्रिय पुरुषों को बहुत दुर्लभ है; मेरा बड़ा भाग्य है जो मुझे आपका दर्शन हुआ और मैं आपके चरणों की मंगलमयी रज अपने सिर पर चढ़ा सका। मेरे भाग्योदय से ही आपने मुझे राजधर्मों की शिक्षा देकर मुझ पर महान् अनुग्रह किया है और मैंने भी शुभ प्रारब्ध का उदय होने से ही आपकी पवित्र वाणी कान खोलकर सुनी है।

मुने! इस कन्या के स्नेहवश मेरा चित्त बहुत चिन्ताग्रस्त हो रहा है; अतः मुझ दीन की यह प्रार्थना आप कृपापूर्वक सुनें। यह मेरी कन्या-जो प्रियव्रत और उत्तानपाद की बहिन है-अवस्था, शील और गुण आदि में अपने योग्य पति को पाने की इच्छा रखती है। जब से नारद जी के मुख से आपके शील, विद्या, रूप, आयु और गुणों का वर्णन सुना है, तभी से यह आपको अपना पति बनाने का निश्चय कर चुकी है। द्विजवर! मैं बड़ी श्रद्धा से आपको यह कन्या समर्पित करता हूँ, आप इसे स्वीकार कीजिये। यह गृहस्थोचित कार्यों के लिये सब प्रकार आपके योग्य है। जो भोग स्वतः प्राप्त हो जाये, उसकी अवहेलना करना विरक्त पुरुष को भी उचित नहीं है; फिर विषयासक्त की तो बात ही क्या है। जो पुरुष स्वयं प्राप्त हुए भोग का निरादर कर फिर किसी कृपण के आगे हाथ पसारता है, उसका बहुत फैला हुआ यश भी नष्ट हो जाता है और दूसरों के तिरस्कार से मान भंग भी होता है। विद्वन्! मैंने सुना है, आप विवाह करने के लिये उद्यत हैं। आपका ब्रह्मचर्य एक सीमा तक है, आप नैष्ठित ब्रह्मचारी तो हैं नहीं। इसलिये अब आप इस कन्या को स्वीकार कीजिये, मैं इसे आपको अर्पित करता हूँ।

श्रीकर्दम मुनि ने कहा- ठीक है, मैं विवाह करना चाहता हूँ और आपकी कन्या का अभी किसी से साथ वाग्दान नहीं हुआ है, इसलिये हम दोनों का सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मा[1] विधि से विवाह होना उचित ही होगा। राजन्! वेदोक्त विवाह-विधि में प्रसिद्ध जो ‘गृभ्णामि ते’ इत्यादि मन्त्रों में बताया हुआ काम (संतानोत्पादनरूप मनोरथ) है, वह आपकी इस कन्या के साथ हमारा सम्बन्ध होने से सफल होगा। भला, जो अपनी अंगकान्ति से आभूषणादि की शोभा को भी तिरस्कृत कर रही है, आपकी उस कन्या का कौन आदर न करेगा?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'मनुस्मृति' में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख पाया जाता है- (1.) ब्राह्मा, (2.) दैव, (3.) आर्ष, (4.) प्राजापत्य, (5.) आसुर, (6.) गान्धर्व, (7.) राक्षस और (8.) पैशाच। इनके लक्षण वही तीसरे अध्याय में देखने चाहिये। इसमें पहला सबसे श्रेष्ठ माना गया है। इसमें पिता योग्य वर को कन्या का दान करता है।

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