श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 1-19

अष्टम स्कन्ध: द्वितीयोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


ग्राह के द्वारा गजेन्द्र का पकड़ा जाना

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! क्षीरसागर में त्रिकुट नाम का एक प्रसिद्ध सुन्दर एवं श्रेष्ठ पर्वत था। वह दस हजार योजन ऊँचा था। उसकी लंबाई-चौड़ाई भी चारों ओर इतनी ही थी। उसके चाँदी, लोहे और सोने के तीन शिखरों की छटा से समुद्र, दिशाएँ और आकाश जगमगाते रहते थे और भी उसके कितने ही शिखर ऐसे थे जो रत्नों और धातुओं की रंग-बिरंगी छटा दिखाते हुए सब दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। उनमें विविध जाति के वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ थीं। झरनों की झर-झर से वह गुंजायमान होता रहता था। सब ओर से समुद्र की लहरें आ-आकर उस पर्वत के निचले भाग से टकरातीं, उस समय ऐसा जान पड़ता मानो वे पर्वतराज के पाँव पखार रहीं हों।

उस पर्वत के हरे पन्ने के पत्थरों से वहाँ की भूमि ऐसी साँवली हो गयी थी, जैसे उस पर हरी-भरी दूब लग रही हो। उसकी कन्दराओं में सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, नाग, किन्नर और अप्सराएँ आदि विहार करने के लिये प्रायः बने ही रहते थे। जब उसके संगीत की ध्वनि चट्टानों से टकराकर गुफाओं में प्रतिध्वनित होने लगती थी, तब बड़े-बड़े गर्वीले सिंह उसे दूसरे सिंह की ध्वनि समझकर सह न पाते और अपनी गर्जना से उसे दबा देने के लिये और जोर से गरजने लगते थे। उस पर्वत की तलहटी तरह-तरह के जंगली जानवरों के झुंडों से सुशोभित रहती थी। अनेकों प्रकार के वृक्षों से भरे हुए देवताओं के उद्यान में सुन्दर-सुन्दर पक्षी मधुर कण्ठ से चहकते रहते थे। उस पर बहुत-सी नदियाँ और सरोवर भी थे। उनका जल बड़ा निर्मल था। उनके पुलिन पर मणियों की बालू चमकती रहती रही थी। उनमें देवांगनाएँ स्नान करती थीं जिससे उनका जल अत्यन्त सुगन्धित हो जाता था। उसकी सुरभि लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती थी।

पर्वतराज त्रिकूट की तराई में भगवत्प्रेमी महात्मा भगवान् वरुण का एक उद्यान था। उसका नाम था ऋतुमान्। उसमें देवांगनाएँ क्रीड़ा करती रहती थीं। उसमें सब ओर ऐसे दिव्य वृक्ष शोभायमान थे, जो फलों और फूलों से सर्वदा लदे ही रहते थे। उस उद्यान में मन्दार, पारिजात, गुलाब, अशोक, चम्पा, तरह-तरह के आम, प्रियाल, कटहल, आमड़ा, सुपारी, नारियल, खजूर, बिजौरा, महुआ, साखू, ताड़, तमाल, असन, अर्जुन, रीठा, गूलर, पाकर, बरगद, पलास, चन्दन, नीम, कचनार, साल, देवदारु, दाख, ईख, केला, जामुन, बेर, रुद्राक्ष, हर्रे, आँवला, बेल, कैथ, नीबू और भिलावे आदि के वृक्ष लहराते रहते थे। उस उद्यान में एक बड़ा सरोवर था। उसमें सुनहले कमल खिल रहे थे और भी विविध जाति के कुमुद, उत्पल, कल्हार, शतदल आदि कमलों की अनूठी छटा छिटक रही थी। मतवाले भौंरे गूँज रहे थे। मनोहर पक्षी कलरव कर रहे थे। हंस, कारण्डव, चक्रवाक और सारस दल-के-दल भरे हुए थे। पनडुब्बी, बतख और पपीहे कूज रहे थे। मछली और कछुओं के चलने से कमल के फूल हिल जाते थे, जिससे उनका पराग झड़कर जल को सुन्दर और सुगन्धित बना देता था। कदम्ब, बेंत, नरकुल, कदम्ब लता, बेन आदि वृक्षों से वह घिरा था। कुन्द, कुरबक (कटसरैया), अशोक, सिरस, वनमल्लिका, लिसौड़ा, हरसिंगार, सोनजूही, नाग, पुन्नाग, जाती, मल्लिका, शतपत्र, माधवी और मोगरा आदि सुन्दर-सुन्दर पुष्प वृक्ष एवं तट के दूसरे वृक्षों से भी-जो प्रत्येक ऋतु में हरे-भरे रहते थे-वह सरोवर शोभायमान रहता था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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