श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 1-15

नवम स्कन्ध: अथैकादशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


भगवान श्रीराम की शेष लीलाओं का वर्णन

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! भगवान श्रीराम ने गुरु वसिष्ठ जी को अपना आचार्य बनाकर उत्तम सामग्रियों से युक्त यज्ञों के द्वारा अपने-आप ही अपने सर्वदेवस्वरूप स्वयंप्रकाश आत्मा का यजन किया। उन्होंने होता को पूर्व दिशा, ब्रह्मा को दक्षिण, अध्वर्यु को पश्चिम और उद्गाता को उत्तर दिशा दे दी। उनके बीच में जितनी भूमि बच रही थी, वह उन्होंने आचार्य को दे दी। उनका यह निश्चय था कि सम्पूर्ण भूमण्डल का एकमात्र अधिकारी निःस्पृह ब्राह्मण ही है। इस प्रकार सारे भूमण्डल दान करके उन्होंने अपने शरीर के वस्त्र और अलंकार ही अपने पास रखे। इसी प्रकार महारानी सीता जी के पास भी केवल मांगलिक वस्त्र और आभूषण ही बच रहे।

जब आचार्य आदि ब्राह्मणों ने देखा कि भगवान श्रीराम तो ब्राह्मणों को ही अपना इष्टदेव मानते हैं, उनके हृदय में ब्राह्मणों के प्रति अनन्त स्नेह है, तब उनका हृदय प्रेम से द्रवित हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर सारी पृथ्वी भगवान को लौटा दी और कहा- ‘प्रभो! आप सब लोकों के एकमात्र स्वामी हैं। आप तो हमारे हृदय के भीतर रहकर अपनी ज्योति से अज्ञानान्धकार का नाश कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में भला, आपने हमें क्या नहीं दे रखा है। आपका ज्ञान अनन्त है। पवित्र कीर्ति वाले पुरुषों में आप सर्वश्रेष्ठ हैं। उन महात्माओं को, जो किसी को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचाते, आपने अपने चरणकमल दे रखे हैं। ऐसा होने पर भी आप ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव मानते हैं। भगवन्! आपके इस राम रूप को हम नमस्कार करते हैं’।

परीक्षित! एक बार अपनी प्रजा की स्थिति जानने के लिये भगवान श्रीराम जी रात के समय छिपकर बिना किसी को बतलाये घूम रहे थे। उस समय उन्होंने किसी की यह बात सुनी। वह अपनी पत्नी से कह रहा था- ‘अरी! तू दुष्ट और कुलटा है। तू पराये घर में रह आयी है। स्त्री-लोभी राम भले ही सीता को रख लें, परन्तु मैं तुझे फिर नहीं रख सकता’। सचमुच सब लोगों को प्रसन्न रखना टेढ़ी खीर है। क्योंकि मूर्खों की तो कमी नहीं है। जब भगवान श्रीराम ने बहुतों के मुँह से ऐसी बात सुनी, तो वे लोकापवाद से कुछ भयभीत-से हो गये। उन्होंने श्रीसीता जी का परित्याग कर दिया और वे वाल्मीकि मुनि के आश्रम में रहने लगीं। सीता जी उस समय गर्भवती थीं। समय आने पर उन्होंने एक साथ ही दो पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हुए- कुश और लव। वाल्मीकि मुनि ने उनके जात-कर्मादि संस्कार किये।

लक्ष्मण जी के दो पुत्र हुए- अंगद और चित्रकेतु। परीक्षित! इसी प्रकार भरत जी के भी दो ही पुत्र थे- तक्ष और पुष्कल तथा शत्रुघ्न के भी दो पुत्र हुए- सुबाहु और श्रुतसेन। भरत जी ने दिग्विजय में करोड़ों गन्धर्वों का संहार किया। उन्होंने उनका सब धन लाकर अपने बड़े भाई भगवान श्रीराम की सेवा में निवेदन किया। शत्रुघ्न ने मधुवन में मधु के पुत्र लवण नामक राक्षस को मारकर वहाँ मथुरा नाम की पुरी बसायी। भगवान श्रीराम के द्वारा निर्वासित सीता जी ने अपने पुत्रों को वाल्मीकि जी के हाथों में सौंप दिया और भगवान श्रीराम के चरणकमलों का ध्यान करती हुई वे पृथ्वीदेवी के लोक में चली गयीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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