नवम स्कन्ध: दशमोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 44-56 का हिन्दी अनुवाद
इस प्रकार भगवान् ने भाइयों का अभिनन्दन स्वीकार करके उनके साथ अयोध्यापुरी में प्रवेश किया। उस समय वह पुरी आनन्दोत्सव से परिपूर्ण हो रही थी। राजमहल में प्रवेश करके उन्होंने अपनी माता कौसल्या, अन्य माताओं, गुरुजनों, बराबर के मित्रों और छोटों का यथायोग्य सम्मान किया तथा उनके द्वारा किया हुआ सम्मान स्वीकार किया। श्रीसीता जी और लक्ष्मण जी ने भी भगवान् के साथ-साथ सबके प्रति यथायोग्य व्यवहार किया। उस समय जैसे मृतक शरीर में प्राणों का संचार हो जाये, वैसे ही माताएँ अपने पुत्रों के आगमन से हर्षित हो उठीं। उन्होंने उनको अपनी गोद में बैठा लिया और अपने आँसुओं से उनका अभिषेक किया। उस समय उनका सारा शोक मिट गया। इसके बाद वसिष्ठ जी ने दूसरे गुरुजनों के साथ विधिपूर्वक भगवान् की जटा उतरवायी और बृहस्पति ने जैसे इन्द्र का अभिषेक किया था, वैसे ही चारों समुद्रों के जल आदि से उनका अभिषेक किया। इस प्रकार सिर से स्नान करके भगवान् श्रीराम ने सुन्दर वस्त्र, पुष्पमालाएँ और अलंकार धारण किये। सभी भाइयों और श्रीजानकी जी ने भी सुन्दर-सुन्दर वस्त और अलंकार धारण किये। उनके साथ भगवान् श्रीराम जी अत्यन्त शोभायमान हुए। भरत जी ने उनके चरणों में गिरकर उन्हें प्रसन्न किया और उनके आग्रह करने पर भगवान् श्रीराम ने राजसिंहासन स्वीकार किया। इसके बाद वे अपने-अपने धर्म में तत्पर तथा वर्णाश्रम के आचार को निभाने वाली प्रजा का पिता के समान पालन करने लगे। उनकी प्रजा भी उन्हें अपना पिता ही मानती थी। परीक्षित! जब समस्त प्राणियों को सुख देने वाले परम धर्मज्ञ भगवान् श्रीराम राजा हुए, तब था तो त्रेतायुग, परन्तु मालूम होता था मानो सत्ययुग ही है। परीक्षित! उस समय वन, नदी, पर्वत, वर्ष, द्वीप और समुद्र-सब-के-सब प्रजा के लिये कामधेनु के समान समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले बन रहे थे। इन्द्रियातीत भगवान् श्रीराम के राज्य करते समय किसी को मानसिक चिन्ता या शारीरिक रोग नहीं होते थे। बुढ़ापा, दुर्बलता, दुःख, शोक, भय और थकावट नाम मात्र के लिये भी नहीं थे। यहाँ तक कि जो मरना नहीं चाहते थे, उनकी मृत्यु भी नहीं होती थी। भगवान् श्रीराम ने एक पत्नी का व्रत धारण कर रखा था, उनके चरित्र अतंत पवित्र एवं राजर्षियों के-से थे। वे गृहस्थोचित स्वधर्म की शिक्षा देने के लिये स्वयं उस धर्म का आचरण करते थे। सतीशिरोमणि सीता जी अपने पति के हृदय का भाव जानती रहतीं। वे प्रेम से, सेवा से, शील से, अत्यन्त विनय से तथा अपनी बुद्धि और लज्जा आदि गुणों से अपने पति भगवान् श्रीराम जी का चित्त चुराती रहती थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज