श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 73 श्लोक 1-12

दशम स्कन्ध: त्रिसप्ततितम अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिसप्ततितम अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


जरासन्ध के जेल से छूटे हुए राजाओं की बिदाई और भगवान का इन्द्रप्रस्थ लौट आना

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जरासन्ध ने अनायास ही बीस हजार आठ सौ राजाओं को जीतकर पहाड़ों की घाटी के एक किले के भीतर कैद कर रखा था। भगवान श्रीकृष्ण के छोड़ देने पर जब वे वहाँ से निकले, तब उनके शरीर और वस्त्र मैले हो रहे थे। वे भूख से दुर्बल हो रहे थे और उनके मुँह सूख गये थे। जेल में बंद रहने के कारण उनके शरीर का एक-एक अंग ढीला पड़ गया था। वहाँ से निकलते ही उन नरपतियों ने देखा कि सामने भगवान श्रीकृष्ण खड़े हैं। वर्षाकालीन मेघ के समान उनका साँवला-सलोना शरीर है और उस पर पीले रंग का रेशमी वस्त्र फहरा रहा है। चार भुजाएँ हैं- जिसमें गदा, शंख, चक्र और कमल सुशोभित है। वक्षःस्थल पर सुनहली रेखा-श्रीवत्स का चिह्न है और कमल के भीतरी भाग के समान कोमल, रतनारे नेत्र हैं। सुन्दर वदन प्रसन्नता का सदन है। कानों में मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे हैं। सुन्दर मुकुट, मोतियों का हार, कड़े, करधनी और बाजूबंद अपने-अपने स्थान पर शोभा पा रहे हैं। गले में कौस्तुभ मणि जगमगा रही है और वनमाला लटक रही है।

भगवान श्रीकृष्ण को देखकर उन राजाओं की ऐसी स्थिति हो गयी, मानो वे नेत्रों से उन्हें पी रहे हैं। जीभ से चाट रहे हैं, नासिका से सूँघ रहे हैं और बाहुओं से आलिंगन कर रहे हैं। उनके सारे पाप तो भगवान के दर्शन से ही धुल चुके थे। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर अपना सिर रखकर प्रणाम किया। भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन से उन राजाओं को इतना अधिक आनन्द हुआ कि कैद में रहने का क्लेश बिलकुल जाता रहा। वे हाथ जोड़कर विनम्र वाणी से भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे।

राजाओं ने कहा- शरणागतों के सारे दुःख और भय हर लेने वाले देवेश्वर! सचिदानन्दस्वरूप अविनाशी श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करते हैं। आपने जरासन्ध के कारागार से तो हमें छुड़ा ही दिया, अब इस जन्म-मृत्यु रूप घोर संसार-चक्र से भी छुड़ा दीजिये; क्योंकि हम संसार में दुःख का कटु अनुभव करके उससे ऊब गये हैं और आपकी शरण में आये हैं। प्रभो! अब आप हमारी रक्षा कीजिये। मधुसूदन! हमारे स्वामी! हम मगधराज जरासन्ध का कोई दोष नहीं देखते। भगवन्! यह तो आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है कि हम राजा कहलाने वाले लोग राज्यलक्ष्मी से च्युत कर दिये गये। क्योंकि जो राजा अपने राज्य-ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हो जाता है, उसको सच्चे सुख की-कल्याण की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। वह आपकी माया से मोहित होकर अनित्य सम्पत्तियों को ही अचल मान बैठता है। जैसे मूर्ख लोग मृगतृष्णा के जल को ही जलाशय मान लेते हैं, वैसे ही इन्द्रियलोलुप और अज्ञानी पुरुष भी इस परिवर्तनशील माया को सत्य वस्तु मान लेते हैं।

भगवन्! पहले हम लोग धन-सम्पत्ति के नशे में चूर होकर अंधे हो रहे थे। इस पृथ्वी को जीत लेने के लिये एक-दूसरे की होड़ करते थे और अपनी ही प्रजा का नाश करते रहते थे। सचमुच हमारा जीवन अत्यन्त क्रूरता से भरा हुआ था, और हम लोग इतने अधिक मतवाले हो रहे थे कि आप मृत्युरूप से हमारे सामने खड़े हैं, इस बात की भी हम तनिक परवा नहीं करते थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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