चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
श्रीनारद जी कहते हैं- राजन्! फिर भय नामक यवनराज के आज्ञाकारी सैनिक प्रज्वार और कालकन्या के साथ इस पृथ्वीतल पर सर्वत्र विचरने लगे। एक बार उन्होंने बड़े वेग से बूढ़े साँप से सुरक्षित और संसार की सब प्रकार की सुख-सामग्री से सम्पन्न पुरंजनपुरी को घेर लिया। तब, जिसके चंगुल में फँसकर पुरुष शीघ्र ही निःसार हो जाता है, वह कालकन्या बलात् उस पुरी की प्रजा को भोगने लगी। उस समय वे यवन भी कालकन्या के द्वारा भोगी जाती हुई उस पुरी में चारों ओर से भिन्न-भिन्न द्वारों से घुसकर उसका विध्वंस करने लगे। पुरी के इस प्रकार पीड़ित किये जाने पर उसके स्वामित्व का अभिमान रखने वाले तथा ममताग्रस्त, बहुकुटुम्बी राजा पुरंजन को भी नाना प्रकार के क्लेश सताने लगे। कालकन्या के आलिंगन करने से उसकी सारी श्री नष्ट हो गयी तथा अत्यन्त विषयासक्त होने के कारण वह बहुत दीन हो गया, उसकी विवेकशक्ति नष्ट हो गयी। गन्धर्व और यवनों ने बलात् उसका सारा ऐश्वर्य लूट लिया। उसने देखा कि सारा नगर नष्ट-भ्रष्ट हो गया है; पुत्र, पौत्र, भृत्य, और अमात्य वर्ग प्रतिकूल होकर अनादर करने लगे हैं; स्त्री स्नेहशून्य हो गयी है, मेरी देह को कालकन्या ने वश में कर रखा है और पांचाल देश शत्रुओं के हाथ में पड़ कर भ्रष्ट हो गया है। यह सब देखकर राजा पुरंजन अपार चिन्ता में डूब गया और उसे उस विपत्ति से छुटकारा पाने का कोई उपाय न दिखायी दिया। कालकन्या ने जिन्हें निःसार कर दिया था, उन्हीं भोगों की लालसा से वह दीन था। अपनी पारलौकिकी गति और बन्धुजनों के स्नेह से वंचित रहकर उसका चित्त केवल स्त्री और पुत्र के लालन-पालन में ही लगा हुआ था। ऐसी अवस्था में उनसे बिछुड़ने की इच्छा न होने पर भी उसे उस पुरी को छोड़ने के लिये बाध्य होना पड़ा; क्योंकि उसे गन्धर्व और यवनों ने घेर रखा था तथा कालकन्या ने कुचल दिया था। इतने में ही यवनराज भय के बड़े भाई प्रज्वार ने अपने भाई का प्रिय करने के लिये उस सारी पुरी में आग लगा दी। जब वह नगरी जलने लगी, तब पुरवासी, सेवकवृन्द, सन्तान वर्ग और कुटुम्ब की स्वामिनी के सहित कुटुम्बवत्सल पुरंजन को बड़ा दुःख हुआ। नगर को कालकन्या के हाथ में पड़ा देख उसकी रक्षा करने वाले सर्प को भी बड़ी पीड़ा हुई, क्योंकि उसके निवासस्थान पर भी यवनों ने अधिकार कर लिया था और प्रज्वार उस पर भी आक्रमण कर रहा था। जब उस नगर की रक्षा करने में वह सर्वथा असमर्थ हो गया, तब जिस प्रकार जलते हुए वृक्ष के कोटर में रहने वाला सर्प उससे निकल जाना चाहता है, उसी प्रकार उसने भी महान् कष्ट से काँपते हुए वहाँ से भोगने की इच्छा की। उसके अंग-प्रत्यंग ढीले पड़ गये थे तथा गन्धर्वों ने उसकी सारी शक्ति नष्ट कर दी थी; अतः जब यवन शत्रुओं ने उसे जाते देखकर रोक दिया, तब वह दुःखी होकर रोने लगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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