श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 1-17

नवम स्कन्ध: द्वाविंशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


पांचाल, कौरव और मगध देशीय राजाओं के वंश का वर्णन

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! दिवोदास का पुत्र था मित्रेयु। मित्रेयु के चार पुत्र हुए- च्यवन, सुदास, सहदेव और सोमक। सोमक के सौ पुत्र थे, उनमें सबसे बड़ा जन्तु और सबसे छोटा पृषत था। पृषत के पुत्र द्रुपद थे, द्रुपद के द्रौपदी नाम की पुत्री और धृष्टद्युम्न आदि पुत्र हुए। धृष्टद्युम्न का पुत्र था धृष्टकेतु।

भर्म्याश्व के वंश में उत्पन्न हुए ये नरपति ‘पांचाल’ कहलाये। अजमीढ का दूसरा पुत्र था ऋक्ष। उनके पुत्र हुए संवरण। संवरण का विवाह सूर्य की कन्या तपती से हुआ। उन्हीं के गर्भ से कुरुक्षेत्र के स्वामी कुरु का जन्म हुआ। कुरु के चार पुत्र हुए- परीक्षित, स्धन्वा, जह्नु और निषधाश्व। सुधन्वा से सुहोत्र, सुहोत्र से च्यवन, च्यवन से कृती, कृती से उपरिचरवसु और उपरिचरवसु से बृहद्रथ आदि कई पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें बृहद्रथ, कुशाम्ब, मत्स्य, प्रत्यग्र और चेदिप आदि चेदि देश के राजा हुए। बृहद्रथ का पुत्र था कुशाग्र, कुशाग्र का ऋषभ, ऋषभ का सत्यहित, सत्यहित का पुष्पवान और पुष्पवान् के जहु नामक पुत्र हुआ। बृहद्रथ की दूसरी पत्नी के गर्भ से एक शरीर के दो टुकड़े उत्पन्न हुए। उन्हें माता ने बाहर फेंकवा दिया। तब जरा नाम की राक्षसी ने ‘जियो, जियो’ इस प्रकार कहकर खेल-खेल में उन दोनों टुकड़ों को जोड़ दिया। उसी जोड़े हुए बालक का नाम हुआ जरासन्ध

जरासन्ध का सहदेव, सहदेव का सोमापि और सोमापि का पुत्र हुआ श्रुतश्रवा। कुरु के ज्येष्ठ पुत्र परीक्षित के कोई सन्तान न हुई। जह्नु का पुत्र था सुरथ। सुरथ का विदूरथ, विदूरथ का सार्वभौम, सार्वभौम का जयसेन, जयसेन का राधिक और राधिक का पुत्र हुआ अयुत। अयुत का क्रोधन, क्रोधन का देवातिथि, देवातिथि का ऋष्य, ऋष्य का दिलीप और दिलीप का पुत्र प्रतीप हुआ। प्रतीप के तीन पुत्र थे- देवापि, शान्तनु और बाह्लीक। देवापि अपना पैतृक राज्य छोड़कर वन में चला गया। इसलिये उसके छोटे भाई शान्तनु राजा हुए।

पूर्वजन्म में शान्तनु का नाम महाभिष था। इस जन्म में भी वे अपने हाथों से जिसे छू देते थे, वह बूढ़े से जवान हो जाता था। उसे परमशान्ति मिल जाती थी। इसी करामात के कारण उनका नाम ‘शान्तनु’ हुआ। एक बार शान्तनु के राज्य में बारह वर्ष तक इन्द्र ने वर्षा नहीं की। इस पर ब्राह्मणों ने शान्तनु से कहा कि ‘तुमने अपने बड़े भाई देवापि से पहले ही विवाह, अग्निहोत्र और राजपद को स्वीकार कर लिया, अतः तुम परिवेत्ता[1] हो; इसी से तुम्हारे राज्य में वर्षा नहीं होती। अब यदि तुम अपने नगर और राष्ट्र की उन्नति चाहते हो, तो शीघ्र-से-शीघ्र अपने बड़े भाई को राज्य लौटा दो’।

जब ब्राह्मणों ने शान्तनु से इस प्रकार कहा, तब उन्होंने वन में जाकर अपने बड़े भाई देवापि से राज्य स्वीकार करने का अनुरोध किया। परन्तु शान्तनु के मन्त्री अश्वमरात ने पहले से ही उनके पास कुछ ऐसे ब्राह्मण भेज दिये थे, जो वेद को दूषित करने वाले वचनों से देवापि को वेदमार्ग से विचलित कर चुके थे। इसका फल यह हुआ कि देवापि वेदों के अनुसार गृहस्थाश्रम स्वीकार करने की जगह उसकी निन्दा करने लगे। इसलिये वे राज्य के अधिकार से वंचित हो गये और तब शान्तनु के राज्य में वर्षा हुई। देवापि इस समय भी योग साधना कर रहे हैं और योगियों के प्रसिद्ध निवास स्थाल कलापग्राम में रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. "दाराग्निहोत्रसंयोगं कुरुते योऽग्रजे स्थिते। परिवेत्ता स विज्ञेयः परिवित्तिस्तु पूर्वजः॥"
    अर्थात् जो पुरुष अपने बड़े भाई के रहते हुए उससे पहले ही विवाह और अग्निहोत्र का संयोग करता है, उसे पतिवेत्ता जानना चाहिये और उसका बड़ा भाई परिवित्ति कहलाता है।

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