श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 20 श्लोक 1-13

अष्टम स्कन्ध: अथ विंशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


भगवान वामन जी का विराट् रूप होकर दो ही पग से पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लेना


श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन! जब कुलगुरु शुक्राचार्य ने इस प्रकार कहा, तब आदर्श गृहस्थ राजा बलि ने एक क्षण चुप रहकर बड़ी विनय और सावधानी से शुक्राचार्य जी के प्रति यों कहा।

राजा बलि ने कहा- भगवन! आपका कहना सत्य है। गृहस्थाश्रम में रहने वालों के लिये वही धर्म है जिससे अर्थ, काम, यश और आजीविका में कभी किसी प्रकार बाधा न पड़े। परन्तु गुरुदेव! मैं प्रह्लाद जी का पौत्र हूँ और एक बार देने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ। अतः अब मैं धन लोभ से ठग की भाँति इस ब्राह्मण से कैसे कहूँ कि ‘मैं तुम्हें नहीं दूँगा’।

इस पृथ्वी ने कहा है कि ‘असत्य से बढ़कर कोई अधर्म नहीं है। मैं सब कुछ सहने में समर्थ हूँ, परन्तु झूठे मनुष्य का भार मुझसे नहीं सहा जाता’।

मैं नरक से, दरिद्रता से, दुःख के समुद्र से, अपने राज्य के नाश से और मृत्यु से भी उतना नहीं डरता, जितना ब्राह्मण से प्रतिज्ञा करके उसे धोखा देने से डरता हूँ।

इस संसार में मर जाने के बाद धन आदि जो-जो वस्तुएँ साथ छोड़ देती हैं, यदि उनके द्वारा दान आदि से ब्राह्मणों को भी संतुष्ट न किया जा सका, तो उनके त्याग का लाभ ही क्या रहा?

दधीचि, शिबि आदि महापुरुषों ने अपने परम प्रिय दुस्त्यज प्राणों का दान करके भी प्राणियों की भलाई की है। फिर पृथ्वी आदि वस्तुओं को देने में सोच-विचार करने की क्या आवश्यकता है?

ब्रह्मन! पहले युग में बड़े-बड़े दैत्यराजों ने इस पृथ्वी का उपभोग किया है। पृथ्वी में उनका सामना करने वाला कोई नहीं था। उनके लोक और परलोक को तो काल खा गया, परन्तु उनका यश अभी पृथ्वी पर ज्यों-का-त्यों बना हुआ है।

गुरुदेव! ऐसे लोग संसार में बहुत हैं, जो युद्ध में पीठ न दिखाकर अपने प्राणों की बलि चढ़ा देते हैं; परन्तु ऐसे लोग बहुत दुर्लभ हैं, जो सत्पात्र के प्राप्त होने पर श्रद्धा के साथ धन का दान करें। गुरुदेव! यदि उदार और करुणाशील पुरुष अपात्र याचक की कामना पूर्ण करके दुर्गति भोगता है, तो वह दुर्गति भी उसके लिये शोभा की बात होती है। फिर आप-जैसे ब्रह्मवेत्ता पुरुषों को दान करने से दुःख प्राप्त हो तो उसके लिये क्या कहना है। इसलिये मैं इस ब्रह्मचारी की अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूँगा।

महर्षे! वेदविधि के जानने वाले आप लोग बड़े आदर से यज्ञ-यागादि के द्वारा जिनकी आराधना करते हैं-वे वरदानी विष्णु ही इस रूप में हों अथवा कोई दूसरा हो, मैं इनकी इच्छा के अनुसार इन्हें पृथ्वी का दान करूँगा। यदि मेरे अपराध न करने पर भी ये अधर्म से मुझे बाँध लेंगे, तब भी मैं इनका अनिष्ट नहीं चाहूँगा। क्योंकि मेरे शत्रु होने पर भी इन्होंने भयभीत होकर ब्राह्मण का शरीर धारण किया है। यदि ये पवित्रकीर्ति भगवान् विष्णु ही हैं तो अपना यश नहीं खोना चाहेंगे (अपनी माँगी हुई वस्तु लेकर ही रहेंगे)’। मुझे युद्ध में मारकर भी पृथ्वी छीन सकते हैं और यदि कदाचित ये कोई दूसरा ही हैं, तो मेरे बाणों की चोट से सदा के लिये रणभूमि में सो जायेंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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