नवम स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! इक्ष्वाकु के पुत्र थे निमि। उन्होंने यज्ञ आरम्भ करके महर्षि वसिष्ठ को ऋत्विज के रूप में वरण किया। वसिष्ठ जी ने कहा कि ‘राजन! इन्द्र अपने यज्ञ के लिये मुझे पहले ही वरण कर चुके हैं। उनका यज्ञ पूरा करके मैं तुम्हारे पास आऊँगा। तब तक तुम मेरी प्रतीक्षा करना।’ यह बात सुनकर राजा निमि चुप ही रहे और वसिष्ठ जी इन्द्र का यज्ञ कराने चले गये। विचारवान निमि ने यह सोचकर कि जीवन तो क्षणभंगुर है, विलम्ब करना उचित न समझा और यज्ञ प्रारम्भ कर दिया। जब तक गुरु वसिष्ठ जी न लौटें, तब तक के लिये उन्होंने दूसरे ऋत्विजों को वरण कर लिया। गुरु वसिष्ठ जी जब इन्द्र का यज्ञ सम्पन्न करके लौटे तो उन्होंने देखा कि उनके शिष्य निमि ने उनकी बात न मानकर यज्ञ प्रारम्भ कर दिया है। उस समय उन्होंने शाप दिया कि ‘निमि को अपनी विचारशीलता और पांडित्य का बड़ा घमंड है, इसलिये इसका शरीरपात हो जाये’। निमि की दृष्टि में गुरु वसिष्ठ का यह शाप धर्म के अनुकूल नहीं, प्रतिकूल था। इसलिये उन्होंने भी शाप दिया कि ‘आपने लोभवश अपने धर्म का आदर नहीं किया, इसलिये आपका शरीर भी गिर जाये’। यह कहकर आत्मविद्या में निपुण निमि ने अपने शरीर का त्याग कर दिया। परीक्षित! इधर हमारे वृद्ध पितामह वसिष्ठ जी ने भी अपना शरीर त्यागकर मित्रावरुण के द्वारा उर्वशी के गर्भ से जन्म ग्रहण किया। राजा निमि के यज्ञ में आये हुए श्रेष्ठ मुनियों ने राजा के शरीर को सुगन्धित वस्तुओं में रख दिया। जब सत्रयाग की समाप्ति हुई और देवता लोग आये, तब उन लोगों ने उनसे प्रार्थना की- ‘महानुभावों! आप लोग समर्थ हैं। यदि आप प्रसन्न हैं तो राजा निमि का यह शरीर पुनः जीवित हो उठे।’ देवताओं ने कहा- ‘ऐसा ही हो।’ उस समय निमि ने कहा- ‘मुझे देह का बन्धन नहीं चाहिये। विचारशील मुनिजन अपनी बुद्धि को पूर्ण रूप से श्रीभगवान् में ही लगा देते हैं और उन्हीं के चरणकमलों का भजन करते हैं। एक-न-एक दिन यह शरीर अवश्य ही छूटेगा-इस भय से भीत होने के कारण वे इस शरीर का कभी संयोग ही नहीं चाहते; वे तो मुक्त ही होना चाहते हैं। अतः मैं अब दुःख, शोक और भय के मूल कारण इस शरीर को धारण करना नहीं चाहता। जैसे जल में मछली के लिये सर्वत्र ही मृत्यु के अवसर हैं, वैसे ही इस शरीर के लिये भी सब कहीं मृत्यु-ही-मृत्यु है’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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