श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 30 श्लोक 1-16

तृतीय स्कन्ध: त्रिंश अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रिंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


देह-गेह में आसक्त पुरुषों की अधोगति का वर्णन

श्रीकपिल देव जी कहते हैं- माताजी! जिस प्रकार वायु के द्वारा उड़ाया जाने वाला मेघसमूह उसके बल को नहीं जानता, उसी प्रकार यह जीव भी बलवान् काल की प्रेरणा से भिन्न-भिन्न अवस्थाओं तथा योनियों में भ्रमण करता रहता है, किन्तु उसके प्रबल पराक्रम को नहीं जानता। जीव सुख की अभिलाषा से जिस-जिस वस्तु को बड़े कष्ट से प्राप्त करता है, उसी-उसी को भगवान् काल विनष्ट कर देता है-जिसके लिये उसे बड़ा शोक होता है। इसका कारण यही है कि यह मन्दमति जीव अपने इस नाशवान् शरीर तथा उसके सम्बन्धियों के घर, खेत और धन आदि को मोहवश नित्य मान लेता है। इस संसार में यह जीव जिस-जिस योनि में जन्म लेता है, उसी-उसी में आनन्द मानने लगता है और उस से विरक्त नहीं होता। यह भगवान् की माया से ऐसा मोहित हो रहा है कि कर्मवश नारकी योनियों में जन्म लेने पर भी वहाँ के विष्ठा आदि भोगों में ही सुख मानने के कारण उसे भी छोड़ना नहीं चाहता।

यह मूर्ख अपने शरीर, स्त्री, पुत्र, गृह, पशु, धन और बन्धु-बान्धवों में अत्यन्त आसक्त होकर उनके सम्बन्ध में नाना प्रकार के मनोरथ करता हुआ अपने को बड़ा भाग्यशाली समझता है। इनके पालन-पोषण की चिन्ता से इसके सम्पूर्ण अंग जलते रहते हैं; तथापि दुर्वासनाओं से दूषित हृदय होने के कारण यह मूढ़ निरन्तर इन्हीं के लिये तरह-तरह के पाप करता रहता है। कुलटा स्त्रियों के द्वारा एकान्त में सम्भोगादि के समय प्रदर्शित किये हुए कपटपूर्ण प्रेम में तथा बालकों की मीठी-मीठी बातों में मन और इन्द्रियों के फँस जाने से गृहस्थ पुरुष घर के दुःख प्रधान कपटपूर्ण कर्मों में लिप्त हो जाता है। उस समय बहुत सावधानी करने पर यदि उसे किसी दुःख का प्रतीकार करने में सफलता मिल जाती है, तो उसे ही वह सुख-सा मान लेता है। जहाँ-तहाँ से भयंकर हिंसावृत्ति के द्वारा धन संचय कर यह ऐसे लोगों का पोषण करता है, जिनके पोषण से नरक में जाता है। स्वयं तो उनके खाने-पीने से बचे हुए अन्न को ही खाकर रहता है।

बार-बार प्रयत्न करने पर भी जब इसकी कोई जीविका नहीं चलती, तो यह लोभवश अधीर हो जाने से दूसरे के धन की इच्छा करने लगता है। जब मन्दभाग्य के कारण इसका कोई प्रयत्न नहीं चलता और यह मन्दबुद्धि धनहीन होकर कुटुम्ब के भरण-पोषण में असमर्थ हो जाता है, तब अत्यन्त दीन और चिन्तातुर होकर लंबी-लंबी साँसे छोड़ने लगता है। इसे अपने पालन-पोषण में असमर्थ देखकर वे स्त्री-पुत्रादि इसका पहले के समान आदर नहीं करते, जैसे कृपण किसान बूढ़े बैल की उपेक्षा कर देते हैं। फिर भी इसे वैराग्य नहीं होता। जिन्हें उसने स्वयं पाला था, वे ही अब उसका पालन करते हैं, वृद्धावस्था के कारण इसका रूप बिगड़ जाता है, शरीर रोगी हो जाता है, अग्नि मन्द पड़ जाती है, भोजन और पुरुषार्थ दोनों ही कम हो जाते हैं। वह मरणोन्मुख होकर घर में पड़ा रहता है और कुत्ते की भाँति स्त्री-पुत्रादि के अपमानपूर्वक दिये हुए टुकड़े खाकर जीवन-निर्वाह करता है। मृत्यु का समय निकट आने पर वायु के उत्क्रमण से इसकी पुतलियाँ चढ़ जाती हैं, श्वास-प्रश्वास की नलिकाएँ कफ से रुक जाती हैं, खाँसने और साँस लेने में भी इसे बड़ा कष्ट होता है तथा कफ बढ़ जाने के कारण कण्ठ में घुरघुराहट होने लगती है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः