श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 16-28

नवम स्कन्ध: अथैकादशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद


यह समाचार सुनकर भगवान श्रीराम ने अपने शोकावेश को बुद्धि के द्वारा रोकना चाहा, परन्तु परम समर्थ होने पर भी वे उसे रोक न सके। क्योंकि उन्हें जानकी जी के पवित्र गुण बार-बार स्मरण हो आया करते थे।

परीक्षित! यह स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध सब कहीं इसी प्रकार दुःख का कारण है। यह बात बड़े-बड़े समर्थ लोगों के विषय में भी ऐसी ही है, फिर गृहासक्त विषयी पुरुष के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है।

इसके बाद भगवान श्रीराम ने ब्रह्मचर्य धारण करके तेरह हजार वर्ष तक अखण्ड रूप से अग्निहोत्र किया। तदनन्तर अपना स्मरण करने वाले भक्तों के हृदय में अपने उन चरणकमलों को स्थापित करके, जो दण्डकवन के काँटों से बिंध गये थे, अपने स्वयं प्रकाश परमज्योतिर्मय धाम में चले गये। परीक्षित! भगवान के समान प्रतापशाली और कोई नहीं है, फिर उनसे बढ़कर तो हो ही कैसे सकता है। उन्होंने देवताओं की प्रार्थना से ही यह लीला-विग्रह धारण किया था। ऐसी स्थिति में रघुवंश-शिरोमणि भगवान श्रीराम के लिये यह कोई बड़े गौरव की बात नहीं है कि उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों से राक्षसों को मार डाला या समुद्र पर पुल बाँध दिया। भला, उन्हें शत्रुओं को मारने के लिये बंदरों की सहायता की भी आवश्यकता थी क्या? यह सब उनकी लीला ही है।

भगवान श्रीराम का निर्मल यश समस्त पापों को नष्ट कर देने वाला है। वह इतना फैल गया है कि दिग्गजों का श्यामल शरीर भी उसकी उज्ज्वलता से चमक उठता है। आज भी बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि राजाओं की सभा में उसका गान करते रहते हैं। स्वर्ग के देवता और पृथ्वी के नरपति अपने कमनीय किरीटों से उनके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं। मैं उन्हीं रघुवंशशिरोमणि भगवान श्रीरामचन्द्र की शरण ग्रहण करता हूँ। जिन्होंने भगवान श्रीराम का दर्शन और स्पर्श किया, उनका सहवास अथवा अनुगमन किया-वे सब-के-सब तथा कोसल देश के निवासी भी उसी लोक में गये, जहाँ बड़े-बड़े योगी योग-साधना के द्वारा जाते हैं। जो पुरुष अपने कानों से भगवान श्रीराम का चरित्र सुनता है-उसे सरलता, कोमलता आदि गुणों की प्राप्ति होती है। परीक्षित! केवल इतना ही नहीं, वह समस्त कर्म-बन्धनों से मुक्त हो जाता है।

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवान श्रीराम स्वयं अपने भाइयों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करते थे? तथा भरत आदि भाई, प्रजाजन और अयोध्यावासी भगवान श्रीराम के प्रति कैसा बर्ताव करते थे?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- त्रिभुवनपति महाराज श्रीराम ने राजसिंहासन स्वीकार करने के बाद अपने भाइयों को दिग्विजय की आज्ञा दी और स्वयं अपने निजजनों को दर्शन देते हुए अपने अनुचरों के साथ वे पुरी की देख-रेख करने लगे। उस समय अयोध्यापुरी के मार्ग सुगन्धित जल और हाथियों के मदकणों से सिंचे रहते। ऐसा जान पड़ता, मानो यह नगरी अपने स्वामी भगवान श्रीराम को देखकर अत्यन मतवाली हो रही है। उसके महल, फाटक, सभा भवन, विहार और देवालय आदि में सुवर्ण के कलश रखे हुए थे और स्थान-स्थान पर पताकाएँ फहरा रही थीं। वह डंठल समेत सुपारी, केले के खंभे और सुन्दर वस्त्रों के पट्टों से सजायी हुई थी। दर्पण, वस्त्र और पुष्पमालाओं से तथा मांगलिक चित्रकारियों और बंदनवारों से सारी नगरी जगमगा रही थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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