श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 18-30

षष्ठ स्कन्ध: सप्तम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद


परीक्षित! दैत्यों को भी देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्र की अनबन का पता लग गया। तब उन मदोन्मत्त और आततायी असुरों ने अपने गुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार देवताओं पर विजय पाने के लिये धावा बोल दिया। उन्होंने देवताओं पर इतने तीखे-तीखे बाणों की वर्षा की कि उनके मस्तक, जंघा, बाहु आदि अंग कट-कटकर गिरने लगे। तब इन्द्र के साथ सभी देवता सिर झुकाकर ब्रह्मा जी की शरण में गये। स्वयम्भू एवं समर्थ ब्रह्मा जी ने देखा कि देवताओं की तो सचमुच बड़ी दुर्दशा हो रही है। अतः उनका हृदय अत्यन्त करुणा से भर गया। वे देवताओं को धीरज बँधाते हुए कहने लगे।

ब्रह्मा जी ने कहा- देवताओं! यह बड़े खेद की बात है। सचमुच तुम लोगों ने बहुत बुरा काम किया। हरे, हरे! तुम लोगों ने ऐश्वर्य के मद से अंधे होकर ब्रह्मज्ञानी, वेदज्ञ एवं संयमी ब्रह्माण का सत्कार नहीं किया। देवताओं! तुम्हारी उसी अनीति का यह फल है कि आज समृद्धिशाली होने पर भी तुम्हें अपने निर्बल शत्रुओं के सामने नीचा देखना पड़ा। देवराज! देखो, तुम्हारे शत्रु भी पहले अपने गुरुदेव शुक्राचार्य का तिरस्कार करने के कारण अत्यन्त निर्बल हो गये थे, परन्तु अब भक्तिभाव से उनकी आराधना करके वे फिर धन-जन से सम्पन्न हो गये हैं। देवताओं! मुझे तो ऐसा मालूम पड़ रहा है कि शुक्राचार्य को अपना आराध्यदेव मानने वाले ये दैत्य लोग कुछ दिनों में मेरा ब्रह्मलोक भी छीन लेंगे। भृगुवंशियों ने इन्हें अर्थशास्त्र की पूरी-पूरी शिक्षा दे रखी है। ये जो कुछ करना चाहते हैं, उसका भेद तुम लोगों को नहीं मिल पाता। उनकी सलाह बहुत गुप्त होती है। ऐसी स्थिति में वे स्वर्ग को तो समझते ही क्या हैं, वे चाहे जिस लोक को जीत सकते हैं। सच है, जो श्रेष्ठ मनुष्य ब्राह्मण, गोविन्द और गौओं को अपना सर्वस्व मानते हैं और जिन पर उनकी कृपा रहती है, उनका कभी अमंगल नहीं होता। इसलिये अब तुम लोग शीघ्र ही त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के पास जाओ और उन्हीं की सेवा करो। वे सच्चे ब्राह्मण, तपस्वी और संयमी हैं। यदि तुम लोग उसके असुरों के प्रति प्रेम को क्षमा कर सकोगे और उनका करोगे, तो वे तुम्हारा काम बना देंगे।

श्रीशुकदेव जी कहते है- परीक्षित! जब ब्रह्मा जी ने देवताओं से इस प्रकार कहा, तब उनकी चिन्ता दूर हो गयी। वे त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप ऋषि के पास गये और उन्हें हृदय से लगाकर यों कहने लगे।

देवताओं ने कहा- बेटा विश्वरूप! तुम्हारा कल्याण हो। हम तम्हारे आश्रम पर अतिथि के रूप में आये हैं। हम एक प्रकार से तुम्हारे पितर हैं। इसलिये तुम हम लोगों की समयोचित अभिलाषा पूर्ण करो। जिन्हें सन्तान हो गयी हो, उन सत्पुत्रों का भी सबसे बड़ा धर्म यही है कि वे अपने पिता तथा अन्य गुरुजनों की सेवा करें। फिर जो ब्रह्मचारी हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है। वत्स! आचार्य वेद की, पिता ब्रह्मा जी की, भाई इन्द्र की और माता साक्षात् पृथ्वी की मूर्ति होती है। (इसी प्रकार) बहिन दया की, अतिथि धर्म की, अभ्यागत अग्नि की और जगत् के सभी प्राणी अपने आत्मा की मूर्ति-आत्मस्वरूप होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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