नवम स्कन्ध: नवमोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 14-27 का हिन्दी अनुवाद
भगीरथ का पुत्र था श्रुत, श्रुत का नाभ। यह नाभ पूर्वोक्त नाभ से भिन्न है। नाभ का पुत्र था सिन्धुद्वीप और सिन्धुद्वीप का अयुतायु। अयुतायु के पुत्र का नाम था ऋतुपर्ण। वह नल का मित्र था। उसने नल को पासा फेंकने की विद्या का रहस्य बतलाया था और बदले में उससे अश्व-विद्या सीखी थी। ऋतुपर्ण का पुत्र सर्वकाम हुआ। परीक्षित! सर्वकाम के पुत्र का नाम था सुदास। सुदास के पुत्र का नाम था सौदास और सौदास की पत्नी का नाम था मदयन्ती। सौदास को ही कोई-कोई मित्रसह कहते हैं और कहीं-कहीं उसे कल्माषपाद भी कहा गया है। वह वसिष्ठ के शाप से राक्षस हो गया था और फिर अपने कर्मों के कारण सन्तानहीन हुआ। राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन! हम यह जानना चाहते हैं कि महात्मा सौदास को गुरु वसिष्ठ जी ने शाप क्यों दिया। यदि कोई गोपनीय बात न हो तो कृपया बतलाइये। श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! एक बार राजा सौदास शिकार खेलने गये हुए थे। वहाँ उन्होंने किसी राक्षस को मार डाला और उसके भाई को छोड़ दिया। उसने राजा के इस काम को अन्याय समझ और उनसे भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिये वह रसोइये का रूप धारण करके उनके घर गया। जब एक दिन भोजन करने के लिये गुरु वसिष्ठ जी राजा के यहाँ आये, तब उसने मनुष्य का मांस राँधकर उन्हें परस दिया। जब सर्वसमर्थ वसिष्ठ जी ने देखा कि परोसी जाने वाली वस्तु तो नितान्त अभक्ष्य है, तब उन्होंने क्रोधित होकर राजा को शाप दिया कि ‘जा, इस काम से तू राक्षस हो जायेगा’। जब उन्हें यह बात मालूम हुई कि यह काम तो राक्षस का है-राजा का नहीं, तब उन्होंने उस शाप को केवल बारह वर्ष एक लिये कर दिया। उस समय राजा सौदास भी अपनी अंजलि में जल लेकर गुरु वसिष्ठ को शाप देने के लिये उद्यत हुए। परन्तु उनकी पत्नी मदयन्ती ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। इस पर सौदास ने विचार किया कि ‘दिशाएँ, आकाश और पृथ्वी-सब-के-सब तो जीवमय ही हैं। तब यह तीक्ष्ण जल कहाँ छोडूँ?’ अन्त में उन्होंने उस जल को अपने पैरों पर डाल दिया। [इसी से उनका नाम ‘मित्रसह’ हुआ]। उस जल से उनके पैर काले पड़ गये थे, इसलिये उनका नाम ‘कल्माषपाद’ भी हुआ। अब वे राक्षस हो चुके थे। एक दिन राक्षस बने हुए राजा कल्माषपाद ने एक वनवासी ब्राह्मण-दम्पत्ति को सहवास के समय देख लिया। कल्माषपाद को भूख तो लगी ही थी, उसने ब्राह्मण को पकड़ लिया। ब्राह्मण-पत्नी की कामना अभी पूर्ण नहीं हुई थी। उसने कहा- राजन! आप राक्षस नहीं हैं। आप महारानी मदयन्ती के पति और इक्ष्वाकु वंश के वीर महारथी हैं। आप को ऐसा अधर्म नहीं करना चाहिये। मुझे सन्तान की कामना है और इस ब्राह्मण की भी कामनाएँ अभी पूर्ण नहीं हुई हैं, इसलिये आप मुझे मेरा यह ब्राह्मण पति दे दीजिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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