श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 32-39

तृतीय स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 32-39 का हिन्दी अनुवाद


जिस बर्हिष्मती पुरी में मनु जी निवास करते थे, उसमें पहुँचकर उन्होंने अपने त्रितापनाशक भवन में प्रवेश किया। वहाँ अपनी भार्या और सन्तति के सहित वे धर्म, अर्थ और मोक्ष के अनुकूल भोगों को भोगने लगे। प्रातःकाल होने पर गन्धर्वगण अपनी स्त्रियों के सहित उनका गुणगान करते थे; किन्तु मनु जी उसमें आसक्त न होकर प्रेमपूर्ण हृदय से श्रीहरि कथाएँ ही सुना करते थे। वे इच्छानुसार भोगों का निर्माण करने में कुशल थे; किन्तु मननशील और भगवत्परायण होने के कारण भोग उन्हें किंचित् भी विचलित नहीं कर पाते थे।

भगवान् विष्णु की कथाओं का श्रवण, ध्यान, रचना और निरूपण करते रहने के कारण उनके मन्वन्तर को व्यतीत करने वाले क्षण कभी व्यर्थ नहीं जाते थे। इस प्रकार अपनी जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओं अथवा तीनों गुणों को अभिभूत करके उन्होंने भगवान् वासुदेव के कथाप्रसंग में अपने मन्वन्तर के इकहत्तर चतुर्युग पूरे कर दिये।

व्यासनन्दन विदुर जी! जो पुरुष श्रीहरि के आश्रित रहता है उसे शारीरिक, मानसिक, दैविक, मानुषिक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार कष्ट पहुँचा सकते हैं। मनु जी निरन्तर समस्त प्राणियों के हित में लगे रहते थे। मुनियों के पूछने पर उन्होंने मनुष्यों के तथा समस्त वर्ण और आश्रमों के अनेक प्रकार के मंगलमय धर्मों का भी वर्णन किया (जो मनुसंहिता के रूप में अब भी उपलब्ध है)। जगत् के सर्वप्रथम सम्राट् महाराज मनु वास्तव में कीर्तन के योग्य थे। यह मैंने उनके अद्भुत चरित्र का वर्णन किया, अब उनकी कन्या देवहूति का प्रभाव सुनो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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