चतुर्थ स्कन्ध: द्वितीय अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद
जब श्रीशंकर जी के अनुयायियों में अग्रगण्य नंदीश्वर को मालूम हुआ कि दक्ष ने शाप दिया है, तो वे क्रोध से तमतमा उठे और उन्होंने दक्ष तथा उन ब्राह्मणों को, जिन्होंने दक्ष के दुर्वचनों का अनुमोदन किया था, बड़ा भयंकर शाप दिया। वे बोले- ‘जो इस मरणधर्मा शरीर में ही अभिमान करके किसी से द्रोह न करने वाले भगवान् शंकर से द्वेष करता है, वह भेद-बुद्धि वाला मूर्ख दक्ष, तत्त्वज्ञान से विमुख ही रहे। यह ‘चातुर्मास्य यज्ञ करने वाले को अक्षय पुण्य प्राप्त होता है’ आदि अर्थवादरूप वेदवाक्यों से मोहित एवं विवेकभ्रष्ट होकर विषयसुख की इच्छा से कपट धर्ममय गृहस्थाश्रम में आसक्त रहकर कर्मकाण्ड में ही लगा रहता है। इसकी बुद्धि देहादि में आत्मभाव का चिन्तन करने वाली है; उसके द्वारा इसने आत्मस्वरूप को भुला दिया है; यह साक्षात् पशु के ही समान है, अतः अत्यन्त स्त्री-लम्पट हो और शीघ्र ही इसका मुँह बकरे का हो जाये। यह मुख कर्ममयी अविद्या को ही विद्या समझता है; इसलिये यह और जो लोग भगवान् शंकर का अपमान करने वाले इस दुष्ट के पीछे-पीछे चलने वाले हैं, वे सभी जन्म-मरणरूप संसारचक्र में पड़े रहें। वेदवाणीरूप लता फलश्रुतिरूप पुष्पों से सुशोभित है, उसके कर्म फलरूप मनमोहक गन्ध से इनके चित्त क्षुब्ध हो रहे हैं। इससे ये शंकरद्रोही कर्मों के जाल में फँसे रहें। ये ब्राह्मण लोग भक्ष्याभक्ष्य के विचार को छोड़कर केवल पेट पालने के लिये ही विद्या, तप और व्रतादि का आश्रय लें तथा धन, शरीर और इन्द्रियों के सुख को ही सुख मानकर-उन्हीं के गुलाम बनकर दुनिया में भीख माँगते भटका करें’। नदीश्वर के मुख से इस प्रकार ब्राह्मण कुल के लिये शाप सुनकर उसके बदले में भृगु जी ने दुस्तर शापरूप ब्रह्मदण्ड दिया। ‘जो लोग शिवभक्त हैं तथा जो उन भक्तों के अनुयायी हैं, वे सत्-शास्त्रों के विरुद्ध आचरण करने वाले और पाखण्डी हों। जो लोग शौचाचारविहीन, मन्दबुद्धि तथा जटा, राख और हड्डियों को धारण करने वाले हैं-वे ही शैव सम्प्रदाय में दीक्षित हों, जिसमें सुरा और आसव ही देवताओं के समान आदरणीय हैं। अरे! तुम लोग जो धर्म मर्यादा के संस्थापक एवं वर्णाश्रमियों के रक्षक वेद और ब्राह्मणों की निन्दा करते हो, इससे मालूम होता है तुमने पाखण्ड का आश्रय ले रखा है। यह वेदमार्ग ही लोगों के लिये कल्याणकारी और सनातन मार्ग है। पूर्वपुरुष इसी पर चलते आये हैं और इसके मूल साक्षात् श्रीविष्णु भगवान् हैं। तुम लोग सत्पुरुषों के परमपवित्र और सनातन मार्ग स्वरूप वेद की निन्दा करते हो-इसलिये उस पाखण्डमार्ग में जाओ, जिसमें भूतों के सरदार तुम्हारे इष्टदेव निवास करते हैं’। श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! भृगु ऋषि के इस प्रकार शाप देने पर भगवान शंकर कुछ खिन्न से हो वहाँ से अपने अनुयायियों सहित चल दिये। वहाँ प्रजापति लोग जो यज्ञ कर रहे थे, उसमें पुरुषोत्तम श्रीहरि ही उपास्यदेव थे और वह यज्ञ एक हज़ार वर्ष में समाप्त होने वाला था। उसे समाप्त कर उन प्रजापतियों ने श्रीगंगा-यमुना के संगम में यज्ञांत स्नान किया और फिर प्रसन्न मन अपने-अपने स्थानों को चले गए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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