श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 56-66

चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 56-66 का हिन्दी अनुवाद


देवताओं ने कहा- जिस प्रकार आकाश में तरह-तरह के रूपों की कल्पना कर ली जाती है-उसी प्रकार जिन्होंने अपनी माया के द्वारा अपने ही स्वरूप के अन्दर इस संसार की रचना की है और अपने उस स्वरूप को प्रकाशित करने के लिये इस समय इस ऋषि-विग्रह के साथ धर्म के घर में अपने-आपको प्रकट किया है, उन परम पुरुष को हमारा नमस्कार है।

जिनके तत्त्व का शास्त्र के आधार पर हम लोग केवल अनुमान ही करते हैं, प्रत्यक्ष नहीं कर पाते-उन्हीं भगवान् ने देवताओं को संसार की मर्यादा में किसी प्रकार की गड़बड़ी न हो, इसीलिये सत्त्वगुण से उत्पन्न किया है। अब वे अपने करुणामय नेत्रों से-जो समस्त शोभा और सौन्दर्य के निवासस्थान निर्मल दिव्य कमल को नीचा दिखाने वाले हैं-हमारी ओर निहारें।

प्यारे विदुर जी! प्रभु का साक्षात् दर्शन पाकर देवताओं ने उनकी इस प्रकार स्तुति और पूजा की। तदनन्तर भगवान् नर-नारायण दोनों गन्धमादन पर्वत पर चले गये। भगवान् श्रीहरि के अंशभूत वे नर-नारायण ही इस समय पृथ्वी का भार उतारने के लिये यदुकुलभूषण श्रीकृष्ण और उन्हीं के सरीखे श्यामवर्ण, कुरु कुलतिलक अर्जुन के रूप में अवतीर्ण हुए हैं।

अग्निदेव की पत्नी स्वाहा ने अग्नि के ही अभिमानी पावक, पवमान और शुचि- ये तीन पुत्र उत्पन्न किये। ये तीनों ही हवन किये हुए पदार्थों का भक्षण करने वाले हैं। इन्हीं तीनों से पैंतालीस प्रकार के अग्नि और उत्पन्न हुए। ये ही अपने तीन पिता और एक पितामह को साथ लेकर उनचास अग्नि कहलाये। वेदज्ञ ब्राह्मण वैदिक यज्ञकर्म में जिन उनचास अग्नियों के नामों से आग्नेयी इष्टियाँ करते हैं, वे ये ही हैं।

अग्निष्वात्ता, बर्हिषद्, सोमप और आज्यप- ये पितर हैं; इनमें साग्निक भी हैं और निरग्निक भी। इन सब पितरों से स्वधाम के धारिणी और वयुना नाम की दो कन्याएँ हुईं। वे दोनों ही ज्ञान-विज्ञान में पारंगत और ब्रह्मज्ञान का उपदेश करने वाली हुईं। महादेव जी की पत्नी सती थीं, वे सब प्रकार से अपने पतिदेव की सेवा में संलग्न रहने वाली थीं। किन्तु उनके अपने गुण और शील के अनुरूप कोई पुत्र नहीं हुआ। क्योंकि सती के पिता दक्ष ने बिना ही किसी अपराध के भगवान् शिव जी के प्रतिकूल आचरण किया था, इसलिये सती ने युवावस्था में ही क्रोधवश योग के द्वारा स्वयं ही अपने शरीर का त्याग कर दिया था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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