श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 22-31

पंचम स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 22-31 का हिन्दी अनुवाद


हमें बड़े कठोर यज्ञ, तप, व्रत और दानादि करके जो तुच्छ स्वर्ग का अधिकार प्राप्त हुआ है-इससे क्या लाभ है? यहाँ तो इन्द्रियों के भोगों की अधिकता से कारण स्मृतिशक्ति छिन जाती है, अतः कभी श्रीनारायण के चरणकमलों की स्मृति होती ही नहीं। यह स्वर्ग तो क्या-जहाँ के निवासियों की एक-एक कल्प की आयु होती है, किन्तु जहाँ से फिर संसारचक्र में लौटना पड़ता है, उन ब्रह्मलोकादि की अपेक्षा भी भारतभूमि में थोड़ी आयु वाले होकर जन्म लेना अच्छा है; क्योंकि यहाँ धीर पुरुष एक क्षण में ही अपने इस मर्त्य शरीर से किये हुए सम्पूर्ण कर्म श्रीभगवान् को अर्पण करके उनका अभयपद प्राप्त कर सकता है।

‘जहाँ भगवत्कथा की अमृतमयी सरिता नहीं बहती, जहाँ उसके उद्गमस्थान भगवद्भक्त साधुजन निवास नहीं करते और जहाँ नृत्य-गीतादि के साथ बड़े समारोह से भगवान् यज्ञपुरुष की पूजा-अर्चा नहीं की जाती-वह चाहे ब्रह्मलोक ही क्यों न हो, उसका सेवन नहीं करना चाहिये। जिन जीवों ने इस भारतवर्ष में ज्ञान (विवेक बुद्धि), तदनुकुल कर्म तथा उस कर्म के उपयोगी द्रव्यादि सामग्री से सम्पन्न मनुष्य जन्म पाया है, वे यदि आवागमन के चक्र से निकलने का प्रयत्न नहीं करते, तो व्याध की फाँसी से छूटकर भी फलादि के लोभ से उसी वृक्ष पर विहार करने वाले वनवासी पक्षियों के समान फिर बन्धन में पड़ जाते हैं।

‘अहो! इन भारतवासियों का कैसा सौभाग्य है। जब ये यज्ञ में भिन्न-भिन्न देवताओं के उद्देश्य से अलग-अलग भाग रखकर विधि, मन्त्र और द्रव्यादि के योग से श्रद्धापूर्वक उन्हें हवि प्रदान करते हैं, तब इस प्रकार इन्द्रादि भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाने पर सम्पूर्ण कामनाओं के पूर्ण करने वाले स्वयं पूर्णकाम श्रीहरि ही प्रसन्न होकर उस हवि को ग्रहण करते हैं।

यह ठीक है कि भगवान् सकाम पुरुषों के माँगने पर उन्हें अभीष्ट पदार्थ देते हैं, किन्तु यह भगवान् का वास्तविक दान नहीं है; क्योंकि उन वस्तुओं को पा लेने पर भी मनुष्य के मन में पुनः कामनाएँ होती ही रहती हैं। इसके विपरीत जो उनका निष्काम भाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे साक्षात् अपने चरणकमल ही दे देते हैं-जो अन्य समस्त इच्छाओं को समाप्त कर देने वाले हैं। अतः अब तक स्वर्गसुख भोग लेने के बाद हमारे पूर्वकृत यज्ञ, प्रवचन और शुभ कर्मों से यदि कुछ भी पुण्य बचा हो, तो उसके प्रभाव से हमें इस भारतवर्ष में भगवान् की स्मृति से युक्त मनुष्य जन्म मिले; क्योंकि श्रीहरि अपना भजन करने वाले का सब प्रकार से कल्याण करते हैं’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! राजा सगर के पुत्रों ने अपने यज्ञ के घोड़े को ढूँढ़ते हुए इस पृथ्वी को चारो ओर से खोदा था। उससे जम्बू द्वीप के अन्तर्गत ही आठ उपद्वीप और बन गये, ऐसा कुछ लोगों का कथन है। वे स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्ल, आवर्तन, रमणक, मन्दरहरिण, पांचजन्य, सिंहल और लंका हैं।

भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार जैसा मैंने गुरुमुख से सुना था, ठीक वैसा ही तुम्हें यह जम्बू द्वीप के वर्षो का विभाग सुना दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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