(167) रूप देखि अटकि तेरो, रूप देखि अटकि रे। देह ते विदेह भई, ढुरि परी सिर मटकि रे।। टेर ।। मात पिता भ्रात बन्धु, सबही मिल हटकि रे। हिरदय ते अब टरत नाहिं मुरति नगर नटकि रे।। 1 ।। प्रगट भयो पूरन नेह, लोग कहे भटकि रे। ‘मीराँ’ के प्रभु गिरधर बिनु, कौन लखे घटकि रे।। 2 ।।