(153) तर्ज - जकड़ी
चालो हे सखियाँ आपाँ, गिरधर ने ढ़ूँढ़ाँ,
श्याम मिले तो घर ल्यावाँ हे लो।। टेर ।।
घर अरु बाहिर चहुँ दिसि जोया,
जबसे गया नहिं आया हे लो।। 1 ।।
आप न आवे साँवरो पतियाँ न भेजे,
निठुर भया निरदायी हे लो।। 2 ।।
एक सखी कहे किण बिध ढ़ूँढ़ाँ,
बेद ढ़ूँढ़त ज्याने थकिया हे लो।। 3 ।।
दूजी सखी तब यूँ उठ बोली,
सन्तां सूं पूछण चालो हे लो।। 4 ।।
ढ़ूँढ़ न जाने तूँ तो बावरी हे,
औराँ सूं दृष्टि हटावो हे लो।। 5 ।।
घर माहीं ढ़ूँढ़या, बाहर ढ़ूँढ़या,
सत संगत सूँ पाया हे लो।। 6 ।।
मानसिंह गुरुदेव कृपा सूँ,
अब कहि आणू न जाणू हे लो।। 7 ।।