राग-असावरी
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प्रेम की मूरति नागर नट की।
पुन्य थली बरसानें प्रगटी, माया की छाया सब सटकी।।
राधा प्रेम सुधा रस सरिता, अटकत नांय काहू की हटकी।।
चली अबाध अमी रस धारा, हरि की ओर कितहु नहीं भटकी।।
रागी हरि-पद बिसय बिरागी, जन जे अवगाही रस गटकी।।
ते सजि गोप गोपिका आये लै लै सिर दधि माखन मटकी।।
निरखन लगे करन न्यौछावर, रासि रासि आभूषण पटकी।।
सोहत बन्दनवार पाँति सुभ, कदली खम्भ सुमंगल घटकी।।
अचल सुहाग असीसत वृद्धा, जुबती हँसत हँसावत मटकी।।
नाचत गावत सुधि बिसारि सब, सहजहिं लाज-सरम सब झटकी।।