(154) तर्ज - मूँदड़ी
गोप्याँ बैठी घर के माहीं श्याम बजाई बाँसुरी।। टेर ।।
बंशी सुण गोप्याँ सब धाई, मोकूँ याद करे यदुराई।
हिय महँ प्रेम न रयो समाई,
दौड़ी अरध रैन में आय कृष्ण के सामनें खड़ी।। 1 ।।
देखत ही बोले जदुराई, अब तुम कौन काज यहाँ आई,
घर वालों को सँग नहिं लाई,
तुमनें छोड़दई मरजाद अकेली घरसौं नीसरी।। 2 ।।
गोप्याँ कहे सुनो जदुराई, क्यों तुम मधुरी बेनु बजाई,
तब हम रह न सकी घर माहीं,
म्हारो चित हर लीन्हो नाथ, देह की सुध बुध बीसरी।। 3 ।।
सुनकर बोले श्री घनश्याम, ये नहिं कुलवन्ती के काम,
नाशे धर्म होत बदनाम,
थाँरा घ्ज्ञर का जो रया बाट पुत्र घर रोवे सुन्दरी।। 4 ।।
हरि की सुनी अनोखी बात, थर थर काँपी एकहि साथ,
अब घर किस बिध जावाँ नाथ,
बिलखत आन पड़ी चरणाँ में अँखियाँ नीर से भरी।। 5 ।।
मोहन बोले अमरित बानी, प्रीति साँचे मन की जानी,
तुम मत चिन्ता करो सयानी,
हिलमिल महारास अब करस्याँ धीरज राखो सुन्दरी।। 6 ।।